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________________ १५४ ८. समभाव सध्वं जगं तू समयागु पेही, पियमप्पियं कस्स वि नो करेज्जा । सूत्र ० ० १1१०1६| जो साधक सगळा विश्व ने समभाव सू देखे, वो नी किणी रो प्रिय करै अर नी किणी रो अप्रिय । सामाइयमाहु तस्स ज जो प्रत्पारण भएण दंसए । सूत्र० १।२।२।१७ समभाव वो इज साधक धार सकै जो अपर आपने हर भय सू मुक्त राखे । नो उच्चावयं मरणं नियछिज्जा । आचा० २|३|११ 90/ संकट री घड़ियां में मन नै ऊंचो नीचो प्रर्थात् डांवाडोल नीं हुवण देणो चाइजै । समय सया चरे । सूत्र० २।२।३। साधक ने हमेसा समता रो प्राचरण करणो चाइजै । समता सव्वत्थ सुव्व ए । सूत्र० २३|१३| सुव्रती नै हर जगां समता भाव राखणो चाइजै । ६. वीतराग भाव न लिप्पइ भव मज् वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणी पलासं । उत्त० ३२-४७ जो आतमा विषयांसू निरपेक्ष है वा संसार में रैवतां हुया भी जल में कमळणी री भांत अलिप्त रंवै । - विमुत्ता हु ते जरणा पारगमिणो 1. आचा० ११२ रा
SR No.010416
Book TitleMahavira ri Olkhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Baccharaj Nahta
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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