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________________ निर्मल सम्यक्तको धारण करनेवाला वह राजा श्रावकोंके बारह व्रत अतचिार (दोष ) हारहित पालता हुआ। चारों पर्वदिनों ( अष्टमी चौदस ) में आरंभरहित पापोंको नाश करनेवाले प्रोषधोपचासोंको पालता था। वहुत ऊँचे जैनमंदिर बनवाके सुवर्ण और रत्नमयी जिनेन्द्र मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा करता हुआ । वह राजा अपने घरके चैत्यालयकी तथा बाहरके जैनमंदिरोंकी पूजा Hशुद्ध सामग्री लेकर भक्तिपूर्वक प्रतिदिन करता हुआ । वह राजा हितकी प्राप्तिके लिये मुनियोंको प्रासुक आहारादि दान विधिपूर्वक देता था । निर्वाणभूमि व तीर्थहकर गणधर व योगियोंकी वंदना पूजा करनेके लिये यात्राको जाता था। अपने कुटुंवि-18 योंके साथ वह बुद्धिमान जिनेश आदिकोंसे अंग पूर्वके ग्रन्थोंको सुनता था और वैराग्य ? होनेके लिये दो प्रकारके धर्मके स्वरूपको विचारता था। वह विवेकी रात्रिदिनके किये अशुभ कामोंको सामायिकके द्वारा क्षय करता था और अपनी निंदा करता था कि आज मुझसे यह पाप वना । इस प्रकार शुभ क्रिया-1151 ओसे सदा धर्मको आप पालता था और दूसरोंको उपदेश देता था । अथानंतर एक दिन वह राजा परिवारके साथ क्षेमंकर जिनेश्वरको वंदनेके लिये गया। वहांपर उस कवली भगनान्की तीन प्रदक्षिणा देके मस्तक नवाकर जलादि आठ द्रव्योंसे पूजा करता लन् लन्डन्न्लन्जर
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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