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________________ म. वी. करते, हमेशा जैनियोंको मनोवांछित संपदासे पालते हैं, हमेशा दान पूजा आदिसे पु. भा. विधिसहित धर्मका सेवन करते हैं और उससे एक मोक्षके सिवाय दूसरे स्त्री पुत्र धना॥१२९॥ दिके सुखकी इच्छा नहीं करते उन पुण्यात्माओंके पुण्यके उदयसे मनोवांछित पुत्र । स्त्री बहुत धनका संयोग ( मिलना) अपने आप हो जाता है। | जो धर्मके चाहनेवाले पात्रोंको हमेशा दान देते हैं और जिनप्रतिमा जिनमंदिर पाठशाला आदिमें अपनी सिद्धिके लिये भक्तिसे धन खर्च करते हैं उन महा दानियोंका। हादातृत्वगुण सब जगह प्रसिद्ध होजाता है इसलिये यहां भी प्रतिष्ठा और परलोकमें भी , कल्याण होता है। जो कृपण (कंजूस) पात्रोंको दान कभी नहीं देते और जिनपूजा। वगैर में धन नहीं खर्च करते परंतु तीन लोक लक्ष्मीका सुख चाहते ही हैं ऐसे अज्ञानी महालोभी पापके फलसे बहुत कालतक खोटी गतिमें भटककर फिर सर्प वगैरहकी गतिमें है जानेकेलिये कृपण उत्पन्न होते हैं। SN जो अर्हत और गणधर आदि मुनियोंके तथा धर्मात्माओंके उत्तम गुणोंको उन । गुणोंकी प्राप्ति के लिये हमेशा चितवन करते हैं वे गुणग्रहण स्वभाववाले दोपोंसे दूर। रहनेवाले बुद्धिमानों कर पूजित गुणी होते हैं । जो मूढ गुणी पुरुषोंको दोपोंको ग्रहण १२९। करते हैं गुणों को कभी नहीं ग्रहण करते, निर्गुणी कुदेव आदिकोंके निप्फल गुणोंको ।
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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