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________________ म. वी. समान, पत्ते कपड़ोंके समान, और शाखाओंके ऊपर लटकती हुई दैदीप्यमान मालायें पु. भा. I/वड़के वृक्षकी जटाओंके समान मालूम पड़ती थीं। जोतिष्कजातिके देव ज्योतिरांग कल्पवृक्षोंके नीचे, कल्पवासी देव दीपांग कल्प अ. १४ ॥१९॥ वृक्षोंके नीचे और भवनवासी इंद्र मालांगजातिके कल्पवृक्षोंके नीचे ठहरते थे और क्रीडा करते थे। उन कल्पवृक्षोंके वनोंके वीचमें रमणीक सिद्धार्थ वृक्ष थे उनमें छत्र चामरादिसे शोभायमान भगवान्की प्रतिमायें विराजमान थीं । पहले जो चैत्यक्षोंका है. वर्णन किया गया है वही शोभा इन क्षोंकी भी समझ लेना परंतु भेद इतना ही है कि ये है कल्पवृक्ष इच्छानुसार फल देनेवाले थे । उन कल्पक्षोंके वनोंको चारों तरफसे घेरे । हुए वनवेदिका सोनेकी बनी हुई थी और रत्नोंसे जड़ी हुई बहुत चमकती थी। उसके चांदीके चार दरवाजे थे, वे लटकती हुई मोतियोंकी मालाओंसे लटकते। हुए घंटाओंसे गाना वाजा और नृत्योंसे फूलोंकी माला आदि आठ मंगल द्रव्योंसे ऊँचे । शिखरोंसे और प्रकाशमान रत्नोंके आभूपणोंसहित तोरणोंसे अति शोभायमान दीखते । दथे । उसके बाद बड़े रास्तेके अंदर सोनेके खंभोंके अगाड़ी लटकती हुई अनेक तरहकी धुजायें उस पृथ्वीको शोभायमान करती थीं। १९९। रत्नांके जड़े हुए पीठोंके ऊपर खड़े खंभे ऐसे मालूम होते थे मानों अपनी ऊंची
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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