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________________ म. वी. ॥८३॥ 99503 हे स्वामी जो असंख्याते आपके गुण श्री गणधरादिदेव भी नहीं वर्णन करस| कते तो हम सरीखे अल्प बुद्धि कैसे उन गुणकी तारीफ कर सकते हैं ऐसा समझकर हमारा मन आपकी स्तुतिकरनेमें झूले की तरह झोके लेरहा है । तौभी हे ईश आपके ऊपर हमारी एक निश्चलभक्ति है वही आपकी स्तुति करनेंमे हमें बुलवा रही है । है योगीश बाह्य और अंतरंगके मैलके नाश होनेसे तेरे निर्मल गुणोंके समूह आज | मेघरहित किरणोंकी तरह प्रकाशमान होरहे हैं । हे स्वामिन् आद्यंत दुःखसे मिले हुए चंचल विषयजन्य सुखको छोड़कर आप उत्कृष्ट आत्मीक सुखकी इच्छा करते हैं सो आपको निरीह ( इच्छा रहित ) कहना कैसे वन सकता है । अत्यंत दुर्गंधी ऐसा स्त्रीके खोटे शरीरमें राग (प्रीति) छोड़कर मोक्षरूपी स्त्री में महान प्रेमकरनेवाले आपको रागरहित वीतरागी कैसे कहा जासकता है। ये निंदास्तुति हैं | रत्ननामवाले पत्थरोंको छोड़कर सम्यग्दर्शनादि महान रत्नोंको धारण करनेवाले ऐसे आपके लोभका त्याग कैसे कहा जासकता है। क्षणविनाशी, पापको देनेवाला | राज्य छोड़कर नित्य और अनुपम तीन जगतके राज्यकी इच्छा करनेवाले आपका मन निस्पृह कैसे हो सकता है । م من पु. भा. अ. १२ ॥८३॥
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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