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________________ पाच वष तक चीफ ग्लक रहे द्विवेदी जी क व दिन अच्छ नहा करे उनक गौराग प्रम अपनी रातें बॅगले या क्लब म पिता थे . वेचारे द्विवदा जी दिन भर दफ्तर म काम करत थे और रात भर अपनी कुटिया में बैठे बैठे माहब के तार लेते तथा उनका उत्तर देते थे। चाँदी के कुछ टुकडो के लिये बहुत दिनो तक उन्होंने इस अन्याचार का महन किया । कुछ काल-पश्चात् उनके प्रभु ने उनके द्वारा दूसरो पर भी वही अत्याचार कराना चाहा। सहनशीलता अपनी सीमा पर पहुंच गई थी । द्विवेदी जी ने स्वयं तो सब कुछ महना स्वीकार कर लिया परन्तु दूसरों पर अत्याचार करने मे नाहीं कर दी। बात बढ़ गई । उन्होंने निश्शक भाव से त्याग-पत्र दे दिया। इस समय उनका का वेतन डेढ सौ रुपय था । त्याग-पत्र वापस लेने के लिये लोगों ने बहुत उद्योग किया, परन्तु सब व्यर्थ हुआ। इस विषय पर द्विवेदी जी ने अपनी धर्म-पत्नी की राय माँगी। स्वाभिमानिनी पतिव्रता ने गम्भीरतापूर्वक उत्तर दियाक्या कोई थूक कर भी चाटता है । उन्होने सन्तोष की सॉस ली। हिन्दी का अहोभाग्य था कि हमारे चरित-नायक ने कमला का क्षीरसागर न्याग कर सरस्वती की हिम-शिला पर पुजारी का अामन ग्रहण किया । १६०३ ई० में उन्होने 'सरस्वती' का सम्पादन श्रारम्भ किया। १६०४ ई. तक कॉमी से कार्य-संचालन करने के अनन्तर वे कानपुर चले आए और जुही मे सम्पादन करते रहे। शक्ति मे अधिक परिश्रम करने के कारण वे अस्वस्थ हो गए । १६१० ई० में उनको परे वर्ष भर की छुट्टी लेनी पडी। सम्भवतः इमी वर्ष उनकी माता जी का मी देहान्त हुआ । सत्रह वर्ष तक 'सरस्वती' का सम्पादन करने के उपरान्त १६२० ई० मे उन्होंने इस कार्य में अाकाश ग्रहण किया । जीवन के अन्तिम अठारह वर्ष द्विवेदी जी ने अपने गाय में ही बिनाए । कुछ काल तक आनरेरी मुसिफ का कार्य किया। तदनन्तर ग्राम पंचायत के सरपंच रहे । उनके जीवन के अन्तिम दिन बडे दुख मे बीते । स्वास्थ्य दिन-दिन गिरता गया । पं० शालग्राम शास्त्री आदि अनेक वैद्यो और डाक्टरों की दवा की परन्तु सभी औपधियाँ निष्फल सिद्ध हुई । अन्न न्याग देना पड़ा । लौकी की तरकारी, दलिया और दूध ही उनका आहार था। अनेक रोगों में बार-बार आक्रान्त होने के कारण उनका शरीर शिथिल हो गया था। अन्तिम बीमारी के समय वे वरावर कहा करते थे कि अब मेरे महाप्रस्थान का समय था गया है। जिस किमा से जो कुछ कहना था कह-सुन लिया। अक्टूबर सन् ११३८ ई. के दूसरे सप्ताह में उनक भानजे कमलाकिशार त्रिपाठी के समधी गक्टर शकरच जी उन्द गयपनी ल गय द्विव
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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