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________________ जी का तन्कानान मानासक और शारारिक पीड़ा का ज्ञान उनक निम्नाकित पत्र स बहुत कुछ हा जाता है शुभाशिषः मन्तु, में कोई दो महीने में नरक यातनाएँ भोग रहा हूँ। पडा रहता है। चल फिर कम मकता हूँ। दूर की चीज भी नहीं देख पडती। लिम्बना पढ़ना प्रायः बन्द है । जरा सी दलिया और शाक खा लेता था। अब वह कुछ हजम नहीं होता ! तीन पाव के करीब दूध पी कर रहता हूँ-तीन दफे में । मूग्बी खुजली अलग तंग कर रही है। बहुत दवायें की नहीं जाती। रापी म. प्र. द्विवेदी शंकरदर जी ने अनेक वैद्यों और डाक्टग की सहायता तथा परामर्श मे द्विवेदी जी की चिकित्सा की । मभी उपचार निष्फल हुये । २१ दिसम्बर को प्रातः काल पौने पाँच बजे उम अमर अात्मा ने नश्वर शरीर त्याग दिया। हिन्दी-साहित्य का प्राचार्यपीठ अनिश्चित काल के लिये सूना हो गया ।। द्विवेदी जी का विवाह बाल्यावस्था में ही हो गया था। उनकी धन-पन्नी इतनो रूपवती न थी कि उनकी पालौकिक शोभा को देख कर किसी का सहज पुनीत मन क्षब्ध हो जाता तथापि द्विवेदी जी ने अादर्श प्रेम किया। उनके पत्नी प्रेम का प्रामाणिक इतिहाम अतीव मनोरंजक है। द्विवदी जी की स्त्री की एक नम्खी ने कहा कि द्वार पर पूर्वजों द्वारा स्थापित महावीर जी की मूर्ति पडी है, उसके लिए पक्का चबूतरा बन जाता तो अच्छा होता । चबूतरा बनवा कर उनकी स्त्री ने महावीर शब्द की श्लिष्टता का उपयोग करते हुए कहा कि तुम्हारा चबतग मैने बनवा दिया। महृदय और प्रत्युत्पन्नमति हिवेदी ने नन्काल उत्तर दिया--- 1. किशोरीदास वाजपेयी को लिखित पन्न, 'सरस्वती',भाग ४०, सं० २, पृ. २२२, २३ २. विषय-वासनाओं की तृप्ति के लिये ही जिम प्रेम की उत्पत्ति होती है वह नीच प्रेम है। वह निंद्य और दूषित समझा जाता है। नियाज प्रेम ही रच प्रेम है। प्रेम अवान्तर बातों की कुछ भी परवा नहीं करता । प्रेम-पर से प्रयाण करते समय पाई हुई बाधाओं को बह कुछ नहीं समझना। विघ्नों को देख कर वह केवल मुस्करा देता है। क्योंकि इन सब को उसके सामने हार माननी परती है " सरस्वती भग २ पृ. ३६
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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