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________________ [ ३५ ] हिन्दी मतिनाम और गोपालगग्गु म की कविता १ मनीवन की ही दृषि प्रधान है लोचनपद्धति की ही नहीं अन्य पद्धतियों की यालाच नात्रां स भी उन्हाने झालोच्य रचनाकार की न्तटिका आवश्यकतानुसार विवेचन किया है। टीका या परिचय की पद्धति पर 'पचरित' की अथवा स्वन-पद्धति पर 'हिन्दी कालिदाम' या कालिदाम की मौन्दर्यमूलक चालोचना करते हुए द्विवेदी जी ने रचनाकारों के भावो की तह तक जाने का प्रयास किया है । हिन्दी - नवरत्न' में मिश्रबन्धुश्री ने किसी सारगर्भित और तर्क-सम्मत विवेचन के बिना ही रत्नकोटि में कवियों की मनमानी श्रायोजना की थी। उनके आलोचन की समालोचना मेद्विवेदी जी ने एक रत्न कवि की विशिष्टताओ उसकी ऐतिहासिक और तुलनात्मक छानबीन की विशेष गौरव दिया |४ यालोचनापद्धतिया का पूर्वोक्त वर्गीकरण गणित का-सा नहीं है । एक पति की विशिष्टताएं दूसरी पद्धति की आलोचनाओं में अनायास ही समाविष्ट हो गई हैं। उनके विशिष्ट व्यपदेश का एकमात्र कारण प्राधान्यद्दी है । द्विवेदी जी की आलोचनाओं की उपर्युक्त समीक्षा प्राय सौन्दर्य दृष्टि से की गई है। केवल सौन्दर्य के आधार पर उनकी आलोचनाओ को चर्चा या परिचयमात्र कह कर टाल देना ग्रानिक समालोचना की दृष्टि में बुद्धि-संगत नहीं है । उनकी आलोचनाओं का वास्तविक मुल्य ऐतिहासिक, तुलनात्मक और जीवनीमूलक दृष्टियों मे लॉका जा सकता है । उनकी आलोचना पुस्तकी पर अलग मे भी कुछ कह देने की आवश्यकता है। 6 ग. ऐतिहासिक - " भारवि के जमाने में इन बाता (अप्रासंगिक विस्तार और स्वनाविषयक चातुर्य) की गणना शायद दोषों में न होती रही हो । सब प्रकार के वर्णन करना और कठिन से कठिन शब्द नित्र लिख डालना अब भी पुराने ढंग के कितने ही पंडितो की दृष्टि में दोष नहीं, प्रशंसा की बात है।' 'किरातार्जुनीय' की भूमिका, पृ० ३७ । कम पर नैतिक विचार बहुत 5 ध. जीवनीमूलक -- "उनके काव्य में दार्शनिक विचार बहुत अधिक हैं । वे नीतिशास्त्र के बहुत बड़े पंडित थे । सम्भव है, वे किसी राजा के सभापंडित, धर्माध्यक्ष, न्यायाधीश या और कोई उच्चपदस्थ कर्मचारी रहे हो । जहा कही मौका मिला है वहा वे नीति की बात कहे बिना नहीं रहे । राजनीतिज्ञ, नैयायिक और मुकवि होने ही के कारण भारवि ने अपनी वक्ताओं में अपूर्व योग्यता प्रकट की है" 'किरातार्जुनीय' की भूमिका, पृ० ३३, ३४ और ३५ | 'समालोचना-समुच्चय में, लकलिन । 1. २. विचार-विमर्श में संकलित । ३. उदाहरणार्थ 'नैषधचरित चर्चा', पृ०१३ या 'कालिदास की निरंकुशता' पृ०२ । મ -समुचय पृ० २०८२११२३४ २३५ श्र ।
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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