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________________ - जीवन के नत्र म रूपरंग पहचानन की जा शक्तिमा क्षेत्रम वह स्मति चिन्तना तथा तुलना के रूप में प्रकट होती है । माहित्यिक जगत् में जब यह नीरक्षीरविवेक का रूप धारण करती है तब उसे हम आलोचना कहते है । थालोचना की सहज प्रवृत्ति युग, व्यक्ति, विपय, तत्कालीन बौद्धिक स्थिति, रूढ़ि, भावों के प्रकाशन की सुविधा, सम्प्रेपण के साधन आदि बातों के कारण विशिष्ट रूप धारण किया करती है। आलोचक की अभिरुचि उसकी मानसिक भूमिका, उसका सिद्धान्त- पक्ष, उसकी महृदयता, उसकी सूक्ष्मदर्शिता आदि व्यक्तित्व के श्रावश्यक उपकरण उसकी आलोचना के आकार और प्रकार का निर्धारण करते हैं । युग की समस्याएं समाज की आवश्यकताएं, माहित्य की कमियों, } अच्छाइयाँ या बुराइयाँ किसी न किसी रूप में आलोचना का अग बन ही जाती है । पश्चिम के विज्ञानवादी समाज ने आलोचना की व्याख्यात्मक प्रणाली को जन्म दिया । भारत के निःस्पृह, श्रात्मविस्मृत और सिद्धान्तवादी आलोचक ने जीवनीमूलक आलोचना की ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया। आलोचना की निर्णयात्मक प्रभावाभिव्यंजक, व्याख्यात्मक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, तुलनात्मक आदि सभी प्रणालियों के पीछे युग, माहित्य आवश्यकताएं तथा व्यक्ति छिपे हुए हैं । द्विवेदी जी के युगनिर्मातृत्व को भूल कर हम उन की रचनाओं की यथार्थ परख नही कर सकते । युग को पहचान कर, एक उच्च ग्रादर्श स , - " > प्रेरित हो कर अनवरत साधना के बल पर आजीवन तपस्या करके उस तपस्वी ने युगनिर्माण के रूप में भावी समाज को जो वस्तु दी है वह कुछ साधारण नहीं है । ग्राज वे समस्याएं नहीं हैं। आज वह युग नहीं है। ग्राज व प्रश्न नहीं है । वर्तमान हिन्दी - साहित्यभवन के सप्तम तल पर विराजमान समालोचक को यह भी विचारना होगा कि उसके निचले तलों के निर्माता को कितना घोर परिश्रम और वलिदान करना पडा था । द्विवेदी जी के प्रत्येक पक्ष को समझने के लिये सतर्कता, दृष्टि व्यापकता और सहृदयता की आवश्यकता है । द्विवेदी जी ने श्रालोचक का बाना युग-निर्माण के महान कार्य के निर्वाह के लिए ही धारण किया था । उनकी आलोचनाओ का वास्तविक मूल्य उनके व्यक्तित्व में हैं । द्विवेदी जी ने श्रालोचनाशास्त्र पर कोई पोथा नहीं लिखा और न तो स्थूल और ठोस आलोचनात्मक ग्रन्थों ही की रचना की । युग ने उन्हें ऐसा न करने दिया । ऐसे ग्रन्थों के पढने और समझने वाले ग्राहक ही नहीं थे । इसीलिए उनकी आलोचनाओं ने सरल पुस्तिकाओं और निबन्धों का ही रूप स्वीकार किया । उस समय केवल उपदेष्टा समालोचक की नहीं, क्रियात्मक और सुधारक समालोचक की अपेक्षा थी । इसीलिये समालोचक द्विवेदी सम्पादक श्रासन पर बैठे थे उनकी को उनक युगने उत्पन्न किया उन्होंने अपने
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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