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________________ सात हे प प रचनागत साधारणा यावरण रम अलङ्कार आदिम आगे नहीं सकी है। लोचन -पद्धति की दृष्टि रचनाकार की त. समीक्षा और तत्तनात्मक आलोचना तक गे तो aढी किन्तु उसका विषय साहित्यशास्त्र तक ही मामित रह गया | काव्यों पर इस प्रकार की आलोचनाए नहीं हुई । सम्भवतः उन कविया ने की रचनाओं की विस्तृत समीक्षा को व्यर्थ समझा । संस्कृत में अभिनवगुप्त का बन्यालोकलोचन' और 'अभिनवभारती' आदि इसी प्रकार की रचनाएं है । रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास ग्रादि की समीक्षा-शैली इमी लोचन पद्धति और पाश्चात्य समालोचना प्रणाली का मिश्ररूप है । संस्कृत में लोचन पद्धति पर की गई आलोचना सौन्दर्यमूलक रही है । भारतीय 'श्रालोचक ने ग्रालोच्य रचना सुन्दर या अमुन्दर क्यों है' इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये रचनाकार की जीवनी, विपय के इतिहास, तत्कालीन समाज आदि को दृष्टि में रखकर श्रीचना नहीं की। ये विशेषताएं पश्चिमी साहित्य ने ही हिन्दी को दी ह । 'मेघदूत- रहस्य', ' 'रघुवंश' और 'किरातार्जुनीय' की भूमिकाएं आदि लोचन पद्धति पर द्विवदी जी द्वारा की गई आलोचनाए है इनमें उन्होंने रचना के विषय में मुख्यतः दृष्टियों में विचार किया है— सौन्दर्य, इतिहास, जीवनी और तुलना । सौन्दयदृष्टि में उन्होंने केवल रचना के अन्तर्गत सौन्दर्य तथा उसके गुण-दोप का विवेचन किया है । इतिहास-दृष्टि में रचनाविपयक इतिहास और रचनाकाल की सामाजिक आदि परिस्थितियों की भूमिका मे उसकी समीक्षा की है। जीवनी-दृष्टि से रचना में रचनाकार के व्यक्तित्व, अनुभव यादि का प्रतिबिम्ब खोजते हुए उसकी आलोचना की है । तुलनादृष्टि से उसी वर्ग की अन्य रचनाओं या रचनाकारों की तुलना में प्रस्तुत रचना या रचनाकार की उत्कृष्टता या निकृष्टता की जाँच की है । भारवि पर लिखी गई आलोचना इस पद्धति का विशिष्ट आदर्श है । उसमें उन्होंने भारवि की काव्य- कला पर उपर्युक्त सभी दृष्टियों में विचार किया है । 'कालिदास के मेघदूत का रहस्य' में सौन्दर्य, कवर के राजत्वकाल म १. 'सरस्वती' अगस्त, १९१२ ई० । २. उदाहरणार्थ ----- क. तुलनात्मक “शिशुपालवध के कर्ता माघ पंडित भारति के बाद हुए ह । जान पड़ता है. माघ ने किरातार्जुनीय को बड़े ध्यान से पढकर अपने काव्य की रचना की है। क्योंकि दोनों में कथावतरणसम्बन्धिनी अनेक समताए है। " · HARA 'किरातार्जुनीय' की भूमिका, पृ० १३.१४ । स्व. सौन्दर्यमूलक - "भारवि को लिखना था महाकाव्य । पर कथानक उन्होंने ऐसा चुना जिसके विस्तार के लिए यथेष्ट सुभीता न था । श्रालंकारिको की आजा के पाश न फँसने के कारण ही भारवि को कथा का अस्वाभाविक विस्तार करना पडा और ऐसी ऐमी विशेषताएं रखनी पड़ीं जिनमे काव्यानन्द की प्राप्ति में कमी आ जाती है ।" विगतानीय की भमिका प० २७ और ३०
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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