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________________ ८८ ] महावीर का अन्तस्तल हेमन्त के प्रारम्भ में ही चम्पा की ओर विहार किया । चम्पा के पूर्णभद्र चेत्य में ठहरा वहां मुझे सन्देश मिला कि वीतभय नगर - का राजा मुद्दायन चाहता है कि मैं उसके राज्य में विहार करूं और उसे भी दर्शन दूं । यात्रा लम्बी थी फिर भी मैंने अस तरफ विहार किया । उदाय ने पर्याप्त आदर सत्कार किया और स्वयं भी कर लिये पर उसके राज्य के लोग अनुरागी नहीं मालूम हुए। इसलिये राजा को प्रतिबोध देकर मैं अपने शिष्य परिवार सहित लौटा। क्योंकि चातुर्मास करने लायक वहां की परिस्थिति नहीं थी । रास्ते में खाने पीने की बड़ी तकलीफ हुई ! प्रायः सभी साधु भूख प्यास से व्याकुल होगये । और आपस मै खाने पीने के बारेमें चर्चा करने लगे । 1 1 रास्ते में कुछ गाड़ियाँ जारही थीं, और उनपर तिल लदे हुए थे। साधुओं की आपसी बातचीत से गाड़ीवालों ने समझ लिया कि साधु भूखे हैं । इसलिये उनने कहा- सत्र सन्त हमारे तिलों से भूख शांत करें । सब साधुओं की नजर मेरे ऊपर पड़ी । मुझे यह ftaar और निर्बलता अखरी । मैंने सत्र को तिल लेने से मना कर दिया । 1 मैं नहीं चाहता कि साधु कोई ऐसी चीज खाये जो ग्रीजरूप है, आगे खेती के काम आ सकती है। साधु इस तरह घीजरूप वस्तुएं खाने लगेंगे तो खेती के काम में नुकसान पहुँचा. येंगे । अन्हें तो वे ही वीज खाना चाहिये जो गृहस्थों ने अग्निः संस्कार से या पीस कूटकर तैयार करली हो । आज में इन्हें बीजरूप कच्चे तिलों को खाने का आदेश दे दूं तो कल ये कच्चे खेत ही चर डालेंगे | वन्वत एक बार टूटा कि फिर वह रुकता नहीं है। इसलिये मैंने किसी को तिल न खाने दिये । आगे बढ़ने पर स्वच्छ पानी के तालाव मिले। साधु N "
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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