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________________ . २४.] महावीर का अन्तस्तल वह भन होता है स्वार्थपरता से. कयाय ने. पक्षपात से । क्षीणकपाय व्याक्त भी अमत्य मनोयोगी आर असत्य वचनयोगी होल. कता है पर इसस व अज्ञानी अर्थात मिथ्याज्ञानी नहीं कहा - जासकता । चरित्र के विषय का मिथ्याज्ञान ही मिथ्यानान है। आर चरित्र के विषय का मिथ्या विश्वास ही मिथ्या दर्शन है। तत्व-बाह्य पदाथों में इनका कोई सम्बन्ध नहीं। इतना सत्य दकर भी रह गुणस्थान से अमत्य वचनयोग अलत्य मनोयोग की बात पर पर्दा डालने से लोग धर्म पर आवश्वास करने से बचे रहेंगे। यह रहस्य भी माधारण जनता को बताने का नहीं है। मनोवैज्ञानिक चिन्मिा में कुछ रहस्य रखना उचित ही है। अन्यथा चिकित्सा व्यर्थ जायगी। ___अस्तु ! एक तरह से आज मंग आत्मसाधना पूरी होगई। आज से मैं अपने को कवलनानी तथंकर जिन अहन्त बुद्ध घोषित कर दूंगा या करने दूंगा। इस विषय में मैंने अपना मनोवृत्तियों को खूब टटोला है। उनमें या लूटने का या अकल्याणकर महत्वाकांक्षा का पाप कहीं नहीं ह · महत्व स्वीकार करन की जो भावना है वह सिर्फ जगत्कल्याण की दृष्टि म.जगत् को सत्य के मार्ग पर चलान की हाट से । सुसपर भी आवश्यक उपेक्षा है, शिष्टता की मर्यादा भी है। ६८-लोकसंग्रह के लिये १४ तुपी ९४४४ इतिहास संवत् जो सत्य मैं ढूंई पाया है, जिसे पाकर में केवलज्ञानी होगया है, उस सत्य का यथाशक्य लाभ जगत् को मिल इसका प्रयत्न करना है। एर यह सरल नहीं है, यह वात प्रथम प्रवचन से सिद्ध होगई थी।
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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