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________________ महावीर का अन्तस्तत [२४२ उस दिन जब मैं प्रवचन करने बैठा तो सुनने के लिये बहुत से मनुष्य इकट्ठे होगये । मैंने अपने धर्मतीर्थ का निचोड़ अनेकांत सिद्धांत का विवेचन क्रिया पर सबके सब मूर्ति की तरह बैठे रहे । अन्हें मेरी बात समझमें न आई इसलिय उलने मुझे महान ज्ञानी तो मान लिया पर इससे उनका कुछ लाभ न हुआ। इसके बाद अनेक स्थानों पर मैंने और प्रवचन किये पर सुनका कोई अर्थ न हुआ। वाणी जैसी विरी वैसी न खिर्ग, क्योकि झेली किसी ने नहीं। हां! यह बात अवश्य है कि लोग मेरे पास आते हैं, समझमें आये चाहे न आये पर सुनते हैं। इसका एक कारण तो यह है कि पिछले बारह वर्ष में इस प्रदेश में खूब वूमा हूं पर एक तरह से मौन ही रक्खा है | युपदेश का काम नहीं किया । अर मेग मान हटा देखकर, मुझे उपदेश देता हुआ देखकर, बहुत से लोग कुतहल से आने है। आने का दृसग झारण है मेरी भाषा । ब्राह्मण तो बेद सुनाते हैं पर उसकी भाषा लोग समझते नहीं है । मैं ऐसी भाषा बोलता हूं जिसे सब समझें । सरल से सरल ग्रामीण मागधी में ही उपदेश करता हूं। उसमें आसपास के प्रदेशों के जो शब्द मिल गये है उनका भी प्रयोग करता हूं इससे. दूसरे प्रदेशों के लोगों को समझने के लिये भी लुमीता होता हैं। इसप्रकार मैंने अपन उपदेश देने की भाषा शुद्ध मागधी नहीं, अर्धमागधी बनाली है। फिर भी मैं जो काम करना चाहता हूं वह इस तरह न होगा। लोगों का केवल कुतुहल शान्त होगा, जीवन में क्रांति नहीं। मुझे लोगों के अन्धविश्वास हटाना है, हिंसा बंद करना है धमों में आर दर्शनों में समन्वय करना है, और सब से बड़ी बात यह कि लोगों को यह बताना है कि तुम्हारा सुख तुम्हारी
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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