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________________ मावीर का अन्तस्तल [२४७ तरह सत्य है । जाकल्याण की दृष्टि से सत्य है और वस्तुस्थिति की डाटे से भी सत्य है। एक बात और है। मेरे तार्थ में सचाई का ज्ञान से इतना सम्बन्ध नहीं है जितना निर्मोहता से । बटे गुणस्थान में मनुष्य सत्य महावी होजाता है, हालांकि वस्तुस्थिति की दृष्टि से उसका गेड़ा वहुत ज्ञान असत्य भी होसकता है । निर्माह या." वीतराग होने से मनुष्य सम्यग्ज्ञानी माना जाना चाहिये ।यों. पूर्ण सत्य को कौन पासकता है, वस्तु तो अमुक अंश में अक्षय हैं, अबक्तव्य है। यद्यपि बाहरी दृष्टि से बहुतसी बातों का ठीक ठीक पता केवलज्ञानी को भी नहीं होता, क्योंकि वह तो मोक्षमार्ग का या तत्वों का सर्वज्ञ है तत्ववाह्य विषयों का सर्वज्ञ नहीं। इसीलिये मैं मानता हूं कि छठे गुणस्थान में मनुष्य असत्य का । पूर्ण त्यागी होजाता है पर असत्य मनोयोग और असत्य वचन . योग तो तेरहवें गुणस्थान में भी होसकता हैं । गुणस्थान की इस चर्चा में मैं इस रहस्य को प्रगट कर दूंगा । पर इसमें एक बाधा है। जब लोग यह मानेगे कि तेरहवे गुणस्थान में भी असत्य मनोयोग और असत्य वचन योग होता है, और मैं तेरहवें गुणस्थान में हूं तव लोगों को मेरे वचनों में सन्देह होगा, और इससे बेचारे आत्मकल्याण से वञ्चित हो जायेंगे। यह ठीक नहीं। ऐसी बात जगत् के सामने रखने का कोई अर्थ नहीं जिससे कल्याण के मार्ग में बाधा पड़ती हो। इसलिये असत्य मनोयांग और असत्यवचन योग अर्हन्त को होते हैं इस बात को छिपाना ही उचित है । यही विधान ठीक है कि असत्य मनोयोग और असत्य वचनयोग वारहवे गुणस्थान तक ही होते हैं। इस विधान से इस बात का पता तो लगजायगा कि असत्य मन वचन के उपयोग से सत्यमहाव्रत भंग नहीं होता है,
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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