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________________ AT महावीर का अन्तस्तल [ २३७ नित्य है, अज है, अमर है । असे हम देख नहीं सकते, छू नहीं सकते पर अनुभव से समझ सकते हैं, अनुभव से जान सकते हैं । ब्राह्मण-आप महान ज्ञानी है महाश्रमण । यह मेरा परम सौभाग्य है कि आप सरीखे परम ज्ञानी ने मेरे यहां चातुर्मास किया । इसके बाद जितने दिन मैं वहां रहा वह ब्राह्मणं प्रतिदिन मेरी पूजा भक्ति करता रहा । ६५ -- संघ की आवश्यकता १ चन्नी ९४४३ इ. संवत् ग्यारह वर्ष से ऊपर मुझे अकेले विहार करते होगये, इस समय में मैंने उग्र तपस्याएँ की, सत्य की अधिक से अधिक खोज की, अहिंसा की उम्र से अग्र साधना की, जिस क्रान्ति के ध्येय से मैंने गृह त्याग किया था उसकी भी पर्याप्त तयारी को, उसके अनुकूल वातावरण निर्माण किया, पर अगर मैं संघ की रचना न करूं और संघ के साथ विहार करने की व्यवस्था न करूं तो लोकसाधना कीट से इतने वर्षों की यह सब साधना व्यर्थ जायगी। मैं अकेला विहार करता हुआ सुख दुख समभावी वनकर अपने को जीवन्मुक बना सकता हूँ परन्तु इतने से समाज में वह परिवर्तन नहीं कर सकता जो परिवर्तन मेरे इस साधनामय या जीवन्मुक जीवन से होना चाहिये | ओर संसार के प्राणियों को जिसकी परम आवश्यकता है । बात यह है कि ऐसे लोग बहुत कम हैं जो निष्पक्ष वनकर मेरे ज्ञान से लाभ उठा सकें, मेरी अहिंसकता को समझ सक । साधारण जनता तो मुझे एक भिखारी या कंगाल समझ बैठती है । उसके पास बिना बाहरी प्रदर्शन के संयम और ज्ञान को
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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