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________________ २८] महावीर का अन्तस्तल देखने की आंखें ही नहीं हैं । इसलिये कभी कभी बड़ी भयंकर दुर्घटनाएँ होजाती हैं । पहिले भी ऐसी दुर्घटनाएँ कम नहीं हुई । कहीं मुझे चोर सममकर सताया गया, कहीं गुप्तचर समझकर प्रताड़ित किया गया, कहीं भिखारी समझकर अपमानित किया गया। इसमें उन लोगों का विशेष दोष नहीं हैं। जो आंखें उनके पास नहीं हैं उसके लिये वे क्या करें ? चमड़े की आंखों से वे जितना देख सकते हैं उतना वे देखते हैं, उसी के अनुसार व्यवहार करते हैं | इसलिये मुझे प्रारम्भ में ऐसी व्यवस्था करना ही पढ़ेगी जिससे चमड़े की ही आंखोंवाले, भीतर की महत्ता का अन्दाज बांध सकें। बाद में जब मेरी धर्म-संस्था व्यापक होजायगी, और मेरे अनुयायी साधुओं की साधुता से जगत परिचित होजायगा, तब अकेले साधु को देखकर भी लोग उसकी साधुता को समझने लगेंगे, उसकी महत्ता को स्वीकार करने लगेंगे आज तो अधिकांश लोग, मेरी महत्ता तो दूर, मेरी ईमानदारी को भी नहीं समझ पाते, और भ्रमवश ऐसा दुर्व्यवहार कर जाते हैं जिससे वे अन्तिम नरक में जाने लायक पाप बांध जाते हैं । इसमें मैं निरपराध होने पर भी निमिन वन जाता हूं। अब मैं सोचता हैं कि अहिंसा के साधक का इतना ही काम नहीं है कि वह केवल अहिंसा की आत्मसाधना करता रहे किन्तु असे प्रभावना आदि के द्वारा लोक-साधना भी करना चाहिये जिससे विश्व के प्राणियों का पतन रुके, सत्यपथ के दर्शकों का तथा चलनेवालो का मार्ग निष्कंटक हो। पिछले दिनों जो एक महान दुर्घटना होगई उससे इस विषय पर गम्भीर विचार करने की आवश्यकता हुई । . चम्पा नगरी का चातुर्मास पूरा करके मैं जृम्भक मेढक पण्मानिग्राम के निकट आया बाहर ठहर गया। वहां एक आदि ग्रामों में विहार करता हुआ और ध्यान लगाकर मैं गांव के
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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