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________________ महावीर का अन्तस्तल मैंने कहा-पर यह कैसे सम्भव है ? जिन चीजों का हम इन्द्रियों से ग्रहण कर सकते हैं वे सब जड़ है, रूप रस गधं स्पर्श आदि गुणवाली हैं, जब कि जीव सुन सब से भिन्न है असमें रूप रस गन्ध स्पर्श नहीं है, वह अमूर्तिक है। अमूर्तिक को मूर्तिक के दृष्टांत से कसे समझ सकते हैं। .. ब्राह्मण-तब जीव को कैसे समझा जाय ? मैंने-उसके गुण से । जीव में एक ऐसा असाधारण गुण है जो संसार के अन्य किसी पदार्थ में नहीं पाया जाता, वह है उसके अनुभव करने की शक्ति, 'मैं हूं' इसका भान । यह भान किसी अन्य पदार्थ में नहीं पाया जाता। ब्राह्मण-पर ऐसा देखा जाता है कि अलग अलग पदा में जो गुण दिखाई नहीं देते वे मिलने पर दिखाई देने लगते हैं। मद्यके घटकों में जो मादकता दिखाई नहीं देती वह मद्यमें देती है। मैं-पमा नहीं होता ब्राह्मण, जो जो चीज हम बात है असका कुछ न कुछ नशा हमारे शरीर पर पड़ता ही है । निद्रा आदि उसी के परिणाम है । मद्य का प्रभाव उसी का विकृत और परिवर्द्धित रूप है। ब्राह्मण, प्रत्येक द्रव्य में प्रत्येक गुण की असंख्य तरह की पर्यायें होती है पर नया गुण पैदा नहीं होसकता। अचेतन में चंतना गुण नहीं आसकता । क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि जद पदार्थों का कोई ऐसा यन्त्र या कोई ऐसा मिश्रण तैयार होसकता है जो अपने बारे में यह अनुभव करने लगे कि 'मैं हूं'। ऐसा तो असम्भव है महाश्रमण । तब जो यह अनुभव करता है वहीं जीव है और यह. संसार के सब जड़ पदाथों से भिन्न है, यह न किसी के मिलने से बन सकता है न किसीके बिलइने से मिट सकता है। वह
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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