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________________ २१४ ] महावीर का अन्तस्तल 1 और आकर के उसने अपनी शक्ति से मेरे पर खूब धूलवर्षा की पर मैं विचलित न हुआ । तब उसने बड़े बड़े चोटें पैदा किये । उनने शरीर के भीतर घुस - घुसकर मेरा सारा शरीर खा डाला, हड्डियों का पिंजरा ही रह गया, फिर भी मैं विचलित नहीं हुआ तब उसने बड़े बड़े डाँस पैदा किये, बनने मेरा खून चूस डाला फिर भी मैं विचलित न हुआ । तब उसने विच्छू पैदा कियें, उनके डंको से भी मैं विचलित न हुआ तब असने साँप पैदा किये जो मेरे शरीर से लिपट गये, फिर भी मैं विचलित न हुआ । तव असने बड़े बड़े दांतवाला हाथी पैदा किया, उसने मु उठाकर आसमान में फेंक दिया, फिर भी मैं विचलित नहीं हुआ । तत्र सुने दिशाच पैदा किया पर उसका भयंकर रूप देखकर भी मैं विचलित नहीं हुआ। तब असने वाघ पैदा किया, पर अससे भी विचलित नहीं हुआ। तब उसने एक रसोइया बुलाया जिसने मेरे दोनों पैरों का चूल्हा बनाकर आग जलाई, पर उससे भी मैं विचलित नहीं हुआ । तब उसने एक बड़ा तूफान पैदा किया, फिर भी मैं विचलित नहीं हुआ । तब उसने हजार मन वजन का एक कालचक पैदा किया जो असने मुझपर फेंका, उसके वजन से मेरा शरीर घुटने तक जनीत में घुस गया। यद्यपि यह सब स्वप्न था, पर स्वप्न का असर भी शरीर पर पड़ता है | कालचक्र के स्वप्न से मुझे कुछ नींद में ही ऐसी घबराहट हुआ कि ठंड होने पर भी मुझे पसीना आ गया और मानसिक आघात से नींद खुलगई। देखा तो वहां कुछ नहीं था, मैं चैत्य में अकेला था। स्वन की भी अद्भुत दुनिया होती है ! बिलकुल असंभव और परस्पर विरोधी घटनाये भी आँखों के सामने प्रत्यक्ष दिखलाई देने लगती हैं, फिर भी निराधार नहीं होती । मन में छिपी हुई वासनाएँ ही इनका आधार बनजाती हैं और कभी कभी
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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