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________________ महावीर का अन्तस्तुल [२१५ ....... .. annama वासनामें इतनी प्रच्छन्न होती हैं कि वासनावाले मनुष्य को भी उनका पता नहीं लगता। यही कारण है कि कभी कभी ऐसे स्वप्न आते है कि जिनका कोई भी वीज हमें मन के भीतर दिखाई नहीं देता। मैं इसी स्वप्न को लेता हूं । मेरे शरीर को चालनी की तरह छेद डाला, इसकी मुझे क्या कल्पना आ सकती है ? फिर भी स्वप्न में यह और ऐसी अनेक बातें प्रत्यक्षसी दिखाई दी, क्यों कि इनका वीज मनमें था। पिछले दिनों में जो मैंने अनेक कष्ट सहे हैं और अविचलित होकर सहे हैं उसके कारण मनमें एक ऐसा आत्मविश्वास पैदा हो गया है कि जो प्रच्छन्न अभिमान बन गया है । स्वर्ग में इन्द्रद्वारा मेरी प्रशंसा के स्वप्न से पता लगता है कि मनके भीतर एक तरह की महत्वाकांक्षा छिपी हुई है । असंयम के ये अंश इतने सूक्ष्म और प्रच्छन्न है कि उनको साधारण ज्ञानी जान नहीं सकता । मनकी इन सूक्ष्म पर्यायों का ज्ञान बहुत उंचे दरजे का ज्ञान है कि जो संयम की पर्याप्त विशुद्धि होनेपर ही हो सकता है । अवधिज्ञान की अपेक्षा इसका मिलना बहुत दुर्लभ है। अवधिज्ञान तो असंयमी को भी हो सकता है पर मनःपर्याय तो असी संयमी को हो सकता है जो अपने या पराये मन के भीतर छिपे हुझे पाप और असंयम को अपनी दिव्य दृष्टि से देख सकता है । साधारण मनोवैज्ञानिकता एक बात है झुसका संबंध विशेष विद्या बुद्धि से है जब कि मनःपर्याय ज्ञान विद्या बुद्धि के सिवाय बहुत उच्च श्रेणी की संयम-विशुद्धि के साथ दिव्य दृष्टिकी अपेक्षा रखता है। आज अपने स्वप्न पर विचार करते करते मुझे मालूम होता है कि मुझे मनःपर्याय ज्ञान होगया है, इस ज्ञान से रहा सहा असंयम भी दूर हो जायगा । तव में अपने को इतना पवित्र बना
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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