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________________ महावीर का अन्तस्तल [२१३ · आनन्द ने कुछ अर्ध स्वगत के समान कहा-इतनी समृद्धि रहते हुए भी जो पुण्य मैं न खरीद सका वह पुण्य दासी होने पर भी बहुला ने खरीद लिया। - मैंने कहा- अब तुम वह पुण्य बहुला से खरीद सकते हो। आनन्द-कैसे खरीद सकता हूं ? मैं- बहुला को दासता से मुक्त करके। आनन्द-मैं प्रसन्नता से बहुला को दासता से मुक्त करता हूं। यह चाहे तो अभी जहां चाहे जासकती है, चाहे तो भतिजीविनी बनकर मेरे ही यहां रहसकती है । मैं राज्य में भी यह विज्ञप्ति भेज देता हूँ कि बहुला आज से स्वतन्त्र है। आनन्द की इस उदारता से मुझे पर्याप्त सन्तोष हुआ । ५६-- स्वम जगत् २ चिंगा ६४३१ इ. सं. एकबार फिर इच्छा हुई कि अकेला ही म्लेच्छ खण्डों में घ, इसलिये दृढभूमि की तरफ विहार किया, पेढाला गांव के पास एक उद्यान में पोलास नाम का चैत्य था उसी चत्य में मैं जशी रास्ते में स्वर्ग लोक के विषय में काफी विचार आते रहे इसलिये रात में जब सोया तव स्वप्न जगत् में उन्हीं विचारों की छाया पड़ी और बड़ा ही अद्भुत स्वम आया। मैंने देखा कि स्वर्गलोक में इंद्र बड़े ठाठ से अपनी सभा में बैठा है और इधर झुधर की गपशप होते होते मेरा प्रकरण छिड़ पड़ा । इन्द्र ने मेरी तपस्या की बड़ी प्रशंसा की इतनी अधिक कि संगमक नाम के देव को झुमपर विश्वास ही नहीं हुआ, तब वह मेरी परीक्षा लेने के लिये मेरे पास आया
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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