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________________ २१२] महावीर का अन्तस्तल .... ..2 आज मैं भिक्षा के लिये अचानक ही आनन्द के यहां जा पहुंचा । आनन्द अपने भवन के दूसरे भाग में था। मैं जिस द्वार पर पहुचा उससे एक दाली निकली। वह कल का वासा भात फेंकने आई थी। मुझे देखते ही वह रुकी । वोली-साधुजी, में दासी हूं, मेरे पास ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसे में अपनी कह सहूं और आपको दे सकूँ। यह वासा भात स्वामिनी ने फेंकने के लिये दिया है इसे मैं अपने स्वामित्व का कह सकती हूं। स्या यह वासा भात आपको चलेगा ? बोलते वोलते असका गला भर आया और आंखें भी गीली होगई। मैंने हाथ पसार दिये और उसने बड़ी भक्ति से करतल पर भात परोसा और मैंने थाहार लिया। आहार लेकर मैं निबटा ही था कि भीतर से आवाज आई, क्यों री वडुला! भात फेंकने में इतनी देर क्यों लगा रही है ? आवाज के पीछे बहुला की स्वामिनी वहां आपहुँची। वह मुझे देखकर ठिठको । फिर क्षणभर रुककर कड़कती हुई आवाज में वोलो-क्यों री! तूने भगवान को वासा भात क्यों परोसा? स्वामिनी की आवाज भवन में गूंज गई । अन्य दासी. दास भी इकट्ठे होगये, आनन्द भी आगया। उसने कहा-भगवन. यह मेरा कितना दुर्भाग्य है कि मेरे घर पर भी आपको वासा भात मिला। .. मैंने कहा- मैंने तुम्हारे यहां आहार नहीं लिया है आनन्द, बहुला के यहां लिया है । बहुला दासी है, फेकने के लिये दिये गये भात पर ही उसका अधिकार कहा जासकता था इसलिये बहुला के यहां मुझे वही मिल सकता था।
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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