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________________ महावीर का अन्तस्तल १६३ MAAAAAAAAAAP a सिद्धार्थपुर से में वैशाली आया हूँ। वैशाली गणतंत्र का केन्द्र है । यहां एक राजा नहीं होता, किंतु सभी क्षत्रिय अपने को एक तरह के राजा समझते हैं । मिलजुलकर अपने में से एक अध्यक्ष चुन लेते हैं । सारा शासन तंत्र क्षत्रिय परिपत के हाथ में रहता है । आज यहां का अध्यक्ष शंख सपरिवार मेरी वन्दना करने को आया था। जन्मसे ही मैं गणतंत्र से परिचित हूं। फिर भी गणतंत्र की तरफ मेरी सहानुभूति कम है। में तो सोचता हूं कि मानव समाज इतना विकसित हो कि असे शासन की जरूरत ही न हो अथवा योग्य मन्त्रियों और परिपदों से नियन्त्रित राजतन्त्र हो। आज मुझे ये दोनों ही तंत्र दिखाई नहीं देते । अपनी इस इच्छा को चरितार्थ करने के लिये मैंने देवलोक को दो भागों में विभक्त किया है। ऊंची श्रेणी के देवों में कोई शासनतंत्र नहीं होता. हर एक देव स्वयं शासित होता है। वहां का हर एक देव इन्द्र है । उसको मैं अहमिन्द्र लोक कहना पसन्द करता हूं। में उस आदर्श रचना समझता हूँ। में तो यह भी सोचता हूँ कि भूतकाल में यहां भी ऐसी रचना रही होगी । जव जीवन का संघर्ष बढ़ा तब यह शासनतंत्र आया और ये राजतंत्र पैदा हुए । स्वर्ग में भी यह राजतंत्र मानता है। जो नीची श्रेणी के देव है उनमें राजा प्रजा की कल्पना होती है, अहमिन्द्र इस कल्पना से अतीत होते हैं इस. . लिये उन्हें कल्पातीत कहना भी ठीक है । . खैर ! देवलोक तो अपनी रचना है इसलिये असे जैसा चाहे रच सकता हूँ। पर इस मानव-लोक की समस्या जटिल है। यहां राम की तरह राजतंत्र नहीं मिलता और लोकतंत्र जनतंत्र या अराजकतंत्र की कहानियाँ पुरानी होगई, उसकी जगह गणतंत्र है जो दोनों से बुरा है । रचना रही होगी म सोचता है किस आदर्श
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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