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________________ महावीर का अन्तस्तल ~ ~ ~~ ~~~ ~ . ... " . v मां बच्चेकी सेवामें जिस प्रकार आनन्दका अनुभव करती है वैसा एक साधक को स्वपर साधना में मिलना चाहिये । साधुता आनन्दमय हो, अल्लासमय हो, दुःख दीनता का भाव उसमें कदापि न आना चाहिये। इन म्लेच्छ देशों में मुझे गालियाँ बहुत खाना पड़ी हैं। गालियों से शरीर को कोई पीड़ा नहीं होती, क्योंकि जिन स्वर व्यंजनों से प्रशंसा के शब्द बनते हैं उन्हीं से गालियों के भी बनते हैं। इसलिये कान में या शरीर के किसी अन्य भाग में उनले पीडा होना सम्भव नहीं है। सिर्फ उनसे यही मालूम होता है कि गाली देने वाले ने मेरा अपमान किया है यह मानसिक पीड़ा है। पर साधु को यह पीड़ा क्यों होना चाहिये ? अगर गाली देनेवाले ने हमारी कोई गलती बताई है तो हमें गलती सुधारना चाहिये, उसने तो चिकित्सक की तरह लाभ ही पहुँचाया है । अगर उसने झूठा अपमान किया है तो उसकी नासमझी पर दया करना चाहिये और मुसकराकर टाल देना चाहिये । यही आक्रोश परिपह विजय है जोकि साधु के लिये आवश्यक है और उसके मनोवल का परिचायक है। . याचना और अलाभ ये दो परिषहें भी मानसिक परिष हैं। होसकता है कि साधु ने राज्य वैभव का त्याग किया हो पर आज तो उसे पेट के लिये याचना करना पड़ती है, रातभर ठहरने के लिये या चौमासा विताने के लिये याचना करना पड़ती है । इन सब बातों से साधु के मन में दीनता का भाव न आये, याचना में वह आत्मगौरव न छोड़े, यह याचना परिषह विजय है । जो सच्चा साधु है, जो समाज से कम से कम लेकर अधिक से अधिक देता है उसमें याचना की दीनता नहीं होसकती। जो मोघजीवी है वह बाहर से कितनी भी निरपेक्षता दिखावे उसके मन में दनिता पैदा होगी, और लोग भी मन ही मन घृणा करेंगे ..
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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