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________________ महावीर का अन्तस्नल [ ११५ उसका नग्नता देखकर ही उसने न जाने किननी पवित्रता देखली | इसीलिये दौड़ा दौड़ा मेरे पास आया। बोला- भगवत् आपकी कृपा से कई वर्ष में अकस्मात मेरा पुत्र घर आया है, महोत्सव है पर आप सरीखे मह श्रमणों के पैर पड़े बिना न तो मेरा घर पवित्र होसकता है. न उत्सव की शोभा होसकती है. इसलिये पधारिये, आहार लेकर मेरा घर पवित्र कीजिये । : मैने कहा नागसेन, किसी के आहार करने से घर पवित्र नहीं होता. घर पवित्र होता है मन पवित्र होने से और मन पवित्र होता है पावत्र व्यक्ति के गुणों का विशेष परित्रय होने से, उसके विषय में विशेष आदर होने से, और उसके गुणों की तरफ अनुराग होने से । पर आज जैसी तुम्हारे यहां भीड़भाड़ है असम तुम्हें इतना अवकाश नहीं ह कि तुम मन पवित्र 1. करसको ! मैं ऐसी भीड़भाड़ में आहार लेना पसन्द नहीं करता । नागसेन - नहीं भगवन् मुझे पूरा अवकाश है; आनेवालों की भीड़भाड़ जितनी है. सम्हालनेवालों की भीड़भाड़ भी सक अनुरूप है । इसलिये मेरे मन को पर्याप्त अवकाश है भगवन् ! आप अवश्य पधारें भगवन्, आज में किसी तरह भी यह अलभ्य लाभ न छोडूंगा । शब्दभाषा के साथ स्वर चेष्टा और मुखाकृति से भी 'उसने इतना अनुनय विनय किया कि मैंने समझा कि यदि मैं न जाऊंगा तो इसके मनको काफी चोट पहुँचेगी । इसलिये मैं चलागया ! • मेरे सामने एक से एक बढ़कर मिष्टान्नों, और व्यञ्जनों के थाल सजाकर रखादये गये । पर उनकी गंधसे तथा नकी आकृति देखकर मैं समझ गया कि इन सबों में किसी न किसी. रूप में भांस मिला हुआ है । जिन्हें देखकर दुसरों के मुँह में
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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