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________________ ११४] महावीर का अन्तस्तल पर मुझमें कोई अस्थिरता न देख पाया। तब वह आगे बढ़ा और मेरी बाई ओर आगया फिर फणं उठाकर मुझे देखने लगा। स्थिर देखकर विशेष परीक्षा के लिये फुसकारा। इतने पर भी मुझमें कोई विकृति न देखकर मेरे विलकुल पास आगया । इसके बाद उसने मेरे दो तीन चक्कर काटे फिर भी मुझे निश्चल पाया। तब वह मेरे पैरों को स्पर्श करतो हुआ दो तीन बार इधर से अधर उधर से इधर घूम गया। अन्त में मुझे विलकुल निरुपद्रवं समझकर मेरे चारों तरफ घूमघामकर चलागया । अहिंसा की परीक्षा सफल हुई। इस सफलता का मुख्य कारण यह था कि सर्प के बारे में मेरा हृदय वत्सलता से परिपूर्ण था। मेरे हृदय में सर्प के बारे में ऐसे ही विचार आत रहे जैसे किसी:अनाड़ी बच्चे के बारे में किसी मां के मन में आते रहते हैं । मैं मन ही मन सर्प से कहने लगा-वत्स, शान्त र, निर्भय रह, जगत् का बुरा न कर, जगत तेरा बुरा न करेगा। । ... सर्प वचारा-मेरे मनकी वात क्या सुनता और मेरी भाषा भी क्या समझता ? पर मन की भावनाएँ मुख-मण्डल पर विशेष आकृति के रूप में जा लिख जाती हैं उन्हें कोई भी पढ़ सकता है । सर्प ने भी मेरी मुखाकृति को पढ़ा होगा और इसी कारण मैं अहिंसा की परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ। .. २४-शुद्धाहार २० सम्मेशी ९४३३ इ. सं. . उत्तर चावाल ग्राम के बाहर नागसेन श्रेष्ठी का भवन है। उसके घर कोई महोत्सव होरहा था। मैं भीड़भाड़ से बचने के लिये किनारे से निकल जाना चाहता था पर नागसेन ने मुझे दखलिया। नागसेन मुझे पहिचानंता तो था नहीं, पर मेरी
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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