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________________ - :. -. ११६] महावीर का अन्तम्तल पानी भर आता है अन्हें देखकर मैं सिहर उठा। .. थालॉ के भीतर मुझे मिष्टान्न नहीं, व्यसन नहीं, किन्तु . . जानवरों के करुण दृश्य दिखाई देने लो। मैंने देखा. हरिण / हरिणी का जोड़ा आपसमें किलोल कर रहा है इतने में व्याध के याण से हरिण घायल होकर गिर पड़ा है। हरिणी कातर नयनों से अश्रु वहारही है। मेरी आंखें बन्द होगई और मनही मन में __ आंसू बहाने लगा। - मुझे ध्यानस्थ सा देखकर पहिले तो :नागसेन शान्त . रहा, उसने समझा भोजन के पहिले मैं किसी इष्ट का ध्यान कर रहा हूँ पर जब मेरे मुंह से एक आह निकली तर वह चौंका : बोला-क्या सोचरहे हैं भगवन् , आहार ग्रहण कर मुझे कृतार्थ : कीजिये। - मैंने कहा-नागमेन, पेट के लिये मैं अपनी सन्तान और भाइ बन्धुओं को नहीं खासकता । नागसेन कुछ न समझ सका, नासमझीमें घबराकर. बाला-मैं अज्ञानी हूँ भगवन, कोई. अपराव हुआ हो तो क्षमा करें! मैने जानबूझकर कोई. अविनय नहीं किया है भगवन, अपनी सन्नान और भाई बन्धुओं को कौन खासकता ह.भगवन, आपकी. चात का तात्पर्य में समझ नहीं सका भगवन! आहार ग्रहण कर मुझे कृतार्थ कर भगवन !. नाग पेन की व्याकुलता देखकर तथा टूटी कड़ियों , सरीखी उसकी बातें सुनकर मैं चिन्ता में पड़गया । आहार ग्रहण न करने से इसके मनको, कितनी चोट पहुँचेगी इसका बड़ा करुण चित्र मेरी आंखों के आगे नाचने लगा। फिर भी मेरा निश्चय था कि अशुद्धाहार किसी भी अवस्था में में न लूंगा। मेने कहा-पशुपक्षी भी हमारे भाई बन्धु या सन्तान के समान हैं।
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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