SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ७९ ) पर सामने खड़ा है एक श्रमरण जिसके तन पर वस्त्र भी नहीं । क्या चक्रवर्ती भी भिक्षुक बनकर यों दर-दर भटकता है ? । लगता है शास्त्र सब झूठे हैं, ऐसे झूठे शास्त्रों को तो गंगा में बहा देना चाहिए ?" उ. प्र. १५३ पुष्यं जब निराश हुआ तब क्या हुआ था ? पुष्य इन्हीं निराशायुक्त विचारों में डगमगाता हुआ उठा, शास्त्रों की गठरी जल-शरण करने जा रहा था कि एक दिव्यवारणी ( देवेन्द्रद्वारा ) उसके कानों में टकराई - पुष्य ! तू पढ़-लिख कर भी मूर्ख रहा ? श्रमण है तो क्या इसकी अद्भुत कान्ति और तेज आँखों से नहीं दीख रहा है ? तू जिसे चक्रवर्ती न मानने की भूल कर रहा है, वह महा पुरुष धर्म चक्रवर्ती सम्राटों का भी सम्राट और असंख्य देवेन्द्रों का भी पूजनीय तीर्थंकर महावीर है, आँखें खोलकर देख जरा ।" पुष्य के अन्तश्चक्षु खुल गये । उसने देखा सचमुच यह भिक्षुक ही विश्व का सर्वोत्तम पुरुष है । पुण्य का श्रद्धा और विनय के साथ कि प्रभु के चरणों में मस्तक झुक गया ।
SR No.010409
Book TitleMahavira Jivan Bodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGirishchandra Maharaj, Jigneshmuni
PublisherCalcutta Punjab Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy