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________________ ( २९० ) सर्वथा मिथ्या प्रलाप है । यह कथन उपस्थित जनता ने सुना और गौशालक के कान तक पहुंचा तो वह बहुत ही क्रोधित हो उठा । अ. ४६३ गौशालक ने क्रोधावेश में आकर क्या किया था ? उ. वह क्रोध में आकर अपने स्थान से बाहर निकला । संयोगसे श्रानन्द अणगार भिक्षाचर्या करते हुए उधर से निकले । गोशालक ने श्रानन्द को रोककर कहा - "आनन्द ! जरा ठहर ! अपने धर्माचार्य महावीर से जाकर कह दे कि मुझ से छेड़-छाड़ न करें। उन्हें समझा दे कि मेरे विषय में कुछ भी अनर्गल कहना, साँप को छेड़ना है । यह ठीक नहीं, जा, अपने धर्माचार्य को सावधान कर दे । मैं श्राता हूँ और भी सबकी बुद्धि ठिकाने लगाता हूँ । प्र. ४ε४ आनन्द अरणगार ने गौशालक की बात सुनकर क्या किया ? उ. गौशालक की क्रोधपूर्णं गर्वोक्ति सुनकर आनंद अरणगार जरा भयभीत हुए और तत्काल प्रभु महावीर के निकट ग्राकर उन्होंने सब बातें
SR No.010409
Book TitleMahavira Jivan Bodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGirishchandra Maharaj, Jigneshmuni
PublisherCalcutta Punjab Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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