SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . पांचवां सर्ग।. [५९. भत्यंत शोभाको प्राप्त होता है, और उसको देखकर यह संदेह होने लगता है कि कहीं. संध्या तो नहीं हो गई ॥ ४ ॥ जहां जंगलीमदांध हस्ती पर्वतके किनारोंमें अपनी प्रतिविचको देखकर दौड़कर वहां आते हैं और दूसरा हस्ती समझकर उसके उपर अपने दातोंका प्रहार करने लगते हैं । ठीक ही है-जो मत्त होते हैं क्या. उनको विवेक रहता है ! ॥५॥ जिसके लगनेसे ही जहर चढ़ जायः ऐसी जहरीली वायुकी उत्कटतास जिनका फण विकराल हो रहा है। ऐसे मुनंग वहां इधर उधर घूमा करते हैं; परंतु गरुड़मणिओंकी स्वच्छ किरणोंका स्पर्श होत ही वे विपरहित हो जाते हैं ॥६॥ इस पर्वतकी पश्चिम. श्रेणी में अलका नामकी नगरी है जो पृथ्वीकी तिलकके समान है। वहां उत्सव और गान बजानके शब्दोंसे दिशाएं पूर्ण रहती हैं। जिससे वह ऐसी मालूम पड़ती है मानों साक्षात् स्वर्गपुरी हो ॥ ७ ॥ इस नगरीकी शोभायमान विशाल खाईने: अपने अत्यंत प्रचारसे दिशाओंको पूर्ण कर दिया है। यह खाई सत्पुरुष या समुद्रके समान मालुम पड़ती है; क्योंकि यह भी सत्पुरुष या समुद्रकी तरह महाशय, अत्यंत धीर, गंभीर, और. अधिक. सत्वकी धारक है। जिस तरह सत्पुरुष महान् आशय-अभिप्रायको' धारण करता है, तथा जिस तरह समुद्र . महान् आशय गड्ढोंको धारण करता है उसी तरह खाई भी महान्-बड़े आशयों-गड्ढोंको. धारण करती है । जिस तरह सत्पुरुष धीर और गंभीर होता है: उसी तरह समुद्र और खाई, मी धीर-स्थिर और गंभीर-गहरे हैं। जिस तरह सत्पुरुष अधिक सत्वका--पराक्रमका:धारक होता है. उसी. तरह समुद्र और खाई.मी.अधिक सत्व-प्राणिओंके धारक हैं-III.
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy