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________________ ६. ] . महावीर चरित्र । इस नगरीका विशाल परकोटा सती स्त्रीके वसः स्थलके समान मालूम . होता है क्योंकि दोनों ही किरणनालसे स्फुरायमान हैं, और परपुरुपके लिये अभेद्य हैं। दोनोंकी मूर्ति भी निरवद्य हैं, तथा दोनों ही की श्रेष्ठ अम्बरश्रीने (आकाशश्रीने दूसरे पक्षमें इनकी शोभाने) पयोधरोंका (मेवोंका दूसरे पक्षमें स्तनोंका) स्पर्श कर रखा है ॥ ९ ॥ वाहरके दरवाजे-मदर फाटकके आगे खड़े हुए कोटमें जो कंगा । खुदे हुए हैं उनके मध्य भागमें आकर विलीन होनानेवाली शरद् ऋतुकी मेवमाला. उत्तम दुपट्टेकी शोमाको धारण . करती है ॥ १० ॥ महलोंके उपर लगे हुए झंडे मंद २'वायुको पाकर हर्षित-चंचल होने लगते हैं। जो ऐसे मालूम पड़ते हैं मानों . ये अंडे नहीं हैं किंतु इस नगरीके हाथ हैं, जिनको परको उठा। कर यह नगरी मानों स्वर्गीय पृथ्वीको बुलाकर उसे अपनी चारों तरफकी शोभाको हमेशा दिखाती हो ॥ ११ ॥ जहांके वैश्य अच्छे नैयायिककी तरह विरोधरहित तथा प्रसिद्ध मानसे सत् और असतका विचार करके किसी भी वस्तुका अच्छी तरह निर्णय . करते हैं, और दक्षतासे अपने वचनोंका प्रयोग करते हैं । भावार्थ-- जिस तरह कोई नैयायिक प्रसिद्ध-प्रमाणसे सिद्ध तथा अव्यभिचारी । प्रमाणके द्वारा सत असतका निर्णय करके किसी वस्तुका ग्रहण करता हैं उसी तरह इस नगरीके वनिये किसी चीजको भली बुरी देखकर, . जिसमें किसीका विरोध न हो तथा प्रसिद्ध-निसको सब जानते हों ऐसे मानसे-तराजू आदिकसे तोल कर लेते हैं। और नैयायिककी . -तरह ही अपने वचनोंका बड़ी दक्षतासे प्रयोग करते हैं ॥ १२ ॥ इस अलका नगरीमें कोई अकुलीन नहीं थे, थे तो तारागण थे।
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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