SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दूसरा सर्ग । [ २१ जीव यमराजरूपी राक्षसके मुखका ग्रास बनता है || १५॥ किन्तु जो निकट मव्य है वह इन विषयोंसे निस्पृह होकर, और बाह्य अभ्यंतर दोनों प्रकार की समस्त परिग्रहका त्यागकर, रत्नत्रय रूपी महान् भूपणको धारणकर, मुक्तिके लिये जिनेन्द्रदीक्षाको ही ग्रहण करता है ॥ १६ ॥ यह रत्नत्रय और जिनेन्द्रदीक्षा ही आत्माका हित है इस बातको मैं अच्छी तरहसे जानता हूं इस चातका मुझे दृढ़ विश्वास है, तो भी इस विषय में जिस तृष्णाने मुझे मूढ़ बना दिया उस तृष्णाका अब मैं इसतरह मूलोच्छेदन करना चाहता हूं जिसतरह हस्ती लताको जड़से उखाड़कर फेंक देता है wwwwww.www.wow || १७ || इस प्रकार दीक्षाकी इच्छास महाराजने महलके ऊपरसे · उतरकर सभागृहमें प्रवेश किया । सभागृह में पहले से ही सिंहासन रख दिया गया था। उसी सिंहासनपर बैठकर कुछ क्षणके बाढ़ अपने पुत्रसे इस तरह बोले:- १८ ॥ " हे वत्स ! तू अपने आश्रितोंस वात्सल्य - प्रेम रखनेवाला है और तू ही इस समस्त विभूतिका आश्रय है । तूने सत्र राजाओंकी प्रकृतिको भी अपनी तरफ अनुरक्त कर रक्खा है | प्रातःकालमें उदयको प्राप्त होनेवाले नवीन सूर्यको छोड़कर और कौन ऐसा है कि जो दिन- श्रीकी प्रकृतिको अपनी तरफ अनुरक्त कर सके कोई भी नहीं कर सकता । अर्थात् जिस प्रकार दिनकी शोभाको नवीन सूर्यको छोड़कर और कोई भी अपनी तरफ आसक्त नहीं कर सकता उसी प्रकार तुझको छोड़कर समस्त राजाओंकी प्रकृतिको भी अपनी तरफ कोई आसक्त नहीं कर सकता ॥ १९ ॥ तू प्रजाके अनुरागको निरंतर बढ़ाता है, मूलवल-सेना आदिकी भी खूब उन्नति करता है, शत्रुओंका कभी विश्वास नहीं •
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy