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________________ - wom - दूसरा सर्ग । : १७. दूसरा सर्ग। Sonoesemo इस प्रकार समस्त गुणोंके अद्वितीय अधिष्ठान अपने पुत्रके उपर राज्यभारको छोड़कर स्वयं महारान अपनी प्रियाक साथ निश्चित होकर संतोपको प्राप्त हुए । ठीक ही है-जो सुपुत्र होता है वह अपने माता पिताको हर्ष उत्पन्न करता ही है ॥ १॥ किसी २ समय अत्युन्नत सिंहासनके ऊपर बैठे हुए उस वैश्यातिको देखकर राजाके साथ समस्त लोक आनन्दित होते थे । क्योंकि अपने प्रमुका दर्शन किसको सुखकर नहीं होता ? ॥ २ ॥ याचकोंकी जितनी इच्छा थी उससे भी अधिक सम्पत्तिका दान कर उनके मनोरथोंको अच्छी तरह पूर्ण करनेवाला, और देवताओं के समान विद्वानोंल सदा वष्टित रहनेवाला यह राना जंगम कल्पवृक्षके समान मालूम होता था। भावार्थ-निस तरह कल्पवृक्ष देवताओंसे सदा वष्ठित रहता है उसी तरह यह राना सदा विद्वानों से वेष्ठित रहता था। और जिन तरह कलावृक्ष यात्रकोंको इच्छित पदार्थका दान करते हैं उसी तरह-त्रलिक उनसे भी कहीं अधिक यह दान करनेवाला था। इसलिये यह राना कल्पवृक्षके समान मालूम होता था । अंतर इतना ही था कि कल्पवृक्ष स्थावर होता है और यह जंगम था ॥ ३ ॥ सज्जनोंके प्रिय इस राजाने सुवर्णकी बनी हुई शिखरोंके अप्रभागमें प्रकाशमान रक्त वर्ण पद्मरागमणियोंको लगाकर उनकी किरणों के द्वारा जिनालयोंको पल्लवोंसे युक्त करावृक्षके समान बना दिया था। भावार्थइस राजाने नो निनालय वनवाये थे उनके शिखर सुवर्णके बने हुए थे। और उनमें प्रकाशमान पद्मरागमणियां लगी हुई थीं। जिनसे वे
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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