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________________ ‘सोलहवाँ सर्ग:। [ २३९ - nimmmmmm होकर भी क्षीण शरीर था और परिग्रह रहित होकर भी महर्द्धि-- महान ऋद्धियोंका धारक था ॥ ४८.॥ हृदयमें महान् क्रोधाग्निको अप्रमाण क्षमारूप अमृत जलसे बुझा दिया। अहो! समस्त तत्ववेत्ता ओंकी कुशला नियमसे अचिन्त्य होती है ॥ ४९ ॥ उसने उचित मार्दव द्वारा मनमेंसे मानरूप विपका निराकरण किया । जो कृतबुद्धिं हैं व यमियोंके ज्ञानका. यही उत्कृष्ट फल बताते हैं ॥५०॥. स्वभावसे ही सौम्य और विशद हैं हृदय जिसका ऐसे उस मुनिको मांग कदाचित् : भी न :पा. सकी। निर्मल किरणसमूहके धारक. चन्द्रमाको अधकारपूर्ण रात्रि किस तरह पा सकती है? ॥५१॥ जिसको हृदयमैं अपने शरीरके विषयमें भी रंचमात्र भी स्पृहा नहीं है उसने लोम शत्रुको जीत लिया तो. इसमें मनीषियोंको आश्चर्यका. स्थान क्या हो सकता है ? ॥ ५२ ॥ अंधकारको दूर करनेवाले अत्यंत निर्मल मुनियोंके गुणगण अत्यंत निर्मल उस मुनिराजको पाकर इस तरह :अधिक शोभाको प्राप्त हुए जैसे स्फटिक्के उन्नत. पर्वतको पाकर चन्द्रकिरणं शोभाको प्राप्त हों ॥ ५३ ॥ अल्प है. मूल जिसका ऐसे नीर्ण वृक्षको जैसे वायु मूलमेंसे उखाड़ डालती. है उसी तरह संगरहित.है समीचीन आचरण निसका ऐसे उस उदारमतिने मदको बिल्कुल मूलमेंसे उखाड़ डाला ॥५४॥ अहो !. और तो कुछ नहीं यह एक बड़ा आश्चर्य था कि आत्मामें स्थित-पूर्व, . बद्ध समस्त कर्माको तपके द्वारा जला दिया फिर भी स्वयं विलकुल. भी नहीं तपा--जला ।। ६५ ।। जो भक्ति और नमस्कार करता. उससे तो तुष्ट नहीं होता था, जो द्वेष करता उसपर कोप नहीं. . करता, अपने अनुसार चलनेवाले . यतियोंपर प्रेम नहीं करता था ।.
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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