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________________ २३६ ] महावीर चरित्र | 1 ठीक ही है - सत्पुरुपों का सब जगह समभाव ही रहता है ।। ५६ । प्रशम संपत्तिवर विराजमान उस मुनिको पाकर तप भी शोभाको.. प्राप्त हुआ । मेघोंके हट जानेपर निर्मल सूर्यमंडलको पाकर क् मेघमार्ग नहीं शोमता है ? || १७ || अति दुःसह परीपहोंके आने पर भी वह अपने धैर्यसे चलायमान - च्युत न हुआ । प्रचण्ड वायुसे ताड़ित होने पर भी समुद्र क्या तटका उल्लंघन कर जाता है ? ॥ ५८ ॥ जिस प्रकार शरद् ऋतुके समय में अमृत रस जिनसे टपक रहा है ऐसी शीतल किरणें चन्द्रमाको प्राप्त होती हैं, उसी प्रकार इस प्रशमनिधिके पास जनता के हित के लिये अनेक लब्धियां आ पहुंची ॥ १९ ॥ विरहित बुद्धि भरज्ञानी भी मनुष्य उस विमलाशयको पाकर अनुपम धर्मको ग्रहण कर लेते थे। दयासे आर्द्र है बुद्धि जिसकी ऐसा मनुष्य क्या मृगोंको शांत नहीं बना देता है ? ॥ ६० ॥ अपने अभिमत अर्थकी सिद्धिको देखकर भव्यगण उनकी सेवा करते थे । पुष्पमारसे नम्र हुए आमके वृक्षको हर्षसे क्श भ्रमरपक्ति घेर नहीं लेती है ? ॥ ६१ ॥ इस प्रकार गुणगणोंके द्वारा श्री वासुपूज्य भगवान् के तीथको प्रकाशित करता हुआ वह - योगिराज चिरकाल तक ऐसे समीचीन और उत्कृष्ट तपको करता रहा जो दूसरे यतियोंके लिये अत्यंत दुश्वर था ॥ ६२ ॥ इम - तरह कुछ समय बीत जाने पर वह मुनिराज आयुके अंत में जब एक -महीना बाकी रहा तब विधिपूर्वक प्रायोप्रवेशन - एलेखना व्रत करके विन्डंग गिरिके ऊपर धर्म - ध्यान पूर्वक प्राणका परित्याग कर प्राणत कल्पमें पहुंचा ॥ ६३ ॥ वहाँपर वह पुष्पोत्तर विमान में पुष्प समान सुगंधियुक्त है देह जिसकी ऐसा बीस सागर आयुका धारक देवों का
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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