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________________ पन्द्रहवाँ सर्ग। [२११ । भत्र धारण नहीं करना पड़ता उस श्रीको नो प्राप्त करना चाहते हैं, जो अपने हितमें प्रवृत्त हो चुके हैं या रहते हैं वे पुरुष कप्टोंसे कभी व्यथित नहीं होते हैं ॥ १०३. ॥ क्षुधावेदनीय कर्मके उदयसे बाधित होनेपर भी जो मुनि लामसे अलाभको ही अधिक प्रशस्त मानता: हुमा न्यायके द्वारा-आगमोक्त विधि के अनुसार पिंडशुद्धिमैदाशुद्धि करके भोजन करता है उसके क्षुधा परीषहके विनयकी प्रशंसा की जाती है ॥ १०४ ॥ नो साधु दुःसह पिपामाको नित्य ही अपने हृदय कमण्डलुमें भरे हुए निर्मल समाधिरूप अलके द्वारा "शांत करता है वही वीरमति साधु तृषाके बढ़े हुए संतापको जीतता हैं।॥ १०६ ॥ जो साधु · माघ मासमें उस समयकी हिम समान शीतलं वायुकी ताड़नाका कुछ भी विचार न करके केवल सम्यग्ज्ञानरूप कम्बलके बसे शीतको दूर कर प्रत्येक रात्रि में बाहर ही सोता है.वही स्वभावसे.धीर और शी साधु शीतको नी:ता है॥ १०६ ।। जबकि वन वन्हियोंकी ज्वालाओं के द्वारा वन दहकने लगता है उस " के समयमें पर्वतके उपर सूर्यकी उप-मध्यान्ह समयकी किरगोंके सामने मुख करके खड़े रहनेसे जिसका शरीर तपगया है फिर भी जो एक क्षणके लिये भी धैर्यसे चलायमान नहीं होता उस प्रसिद्ध मुनिकी ही सहिष्णुता और उष्ण परीषहकी विनय समझनी चाहिये । १०७ ॥ देश मशक आदिकका निरंकुश समूह आकर मर्म स्थानों में अच्छी तरह काट खाय फिर भी नो उदार क्षगके लिये भी योगसे विचलित नहीं होता उसीके दंशमशक परीषहकां विनय जानना चाहिये ॥ १०८ ॥ निस्संगता-निष्परिग्रहपना ही जिसका लक्षण है, जो. याच्चा और प्राणिमध आदि दोपोंसे रहित
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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