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________________ २१० ] महावीर चरित्र | " निरंतर निर्जराका विचार करना चाहिये ॥ ९९ ॥ जिनेन्द्र भगवान्ने लोकका नीचे तिरछा और ऊपर जितना प्रमाण बताया है. उसका तथा अच्छी तरह खड़े हुए मनुष्य के समान उसके आकारका और जिसने भक्तिपूर्वक स्वप्न में भी कभी सम्यक्त्वरूप अमृत का पान नहीं किया ऐसी आत्मा के समस्त लोक में जन्ममरणके द्वारा हुए का भी चितवन करना चाहिये ॥ १०० ॥ तत्वज्ञान ही हैं नेत्र जि: नके ऐसे जिन भगवान्ने हिंसादिक दोषोंसे रहितं समीचीन धर्मको : ही जगज्जीवके हित के लिये बताया है । यह धर्म ही अपार संसारसमुद्र से पारकर मोक्षका देनेवाला है। प्रसिद्ध और अनंत सुखका -स्थानभूत मोक्षपदको उन्होंने ही प्राप्त किया है जो कि इसमें रत रहे हैं ॥ १०१ ॥ यह बात निश्चित है कि जगत् में इन चीजोंका मिलना उत्तरोत्तर दुर्लभ है । सबसे पहले तो मनुष्य जन्मका ही मिलना दुर्लभ है, इसपर भी कमभूमिका मिलना दुर्लभ है, कमभूमि :: में भी उचित देशका मिलना दुर्लभ है, देशमें भी योग्यं कुल, कुछ. 'मिल्नेपर भी निरोगता, निरोगता के मिलने पर भी दीर्घ आयु, आयुकें मिलनेपर भी आत्महित में रति-प्रेम, आत्महित में रति होनेवर भी 'उपदेष्टा - गुरु एवं गुरुके मिटनेपर भी मक्तिपूर्वक धर्मश्रवणका मिलना अत्यंत दुर्लभ है । यदि ये सब अति दुर्लम सामग्रियां . मी . जीवको मिल जांय तो भी वोधि - सम्यग्ज्ञान या रत्नत्रयका : • मिलना अत्यंत दुर्लभ है। इस प्रकार रत्नत्रयसे अलंकृत धर्मात्माओंको निरंतर चितवन करना चाहिये ॥ १०२ ॥ सन्मार्ग - मुनिमार्गः • न छूटे इसलिये, और कर्मोंकी विशेष निर्जरा हो इसलिये मुनिरा नोंको समस्त परीषहों को सहना चाहिये। जिसको प्राप्त कर फिर . "
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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