SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पन्द्रहवाँ सर्गः ।... [ १०९ naimaninmin wwwvwwwvas अपवित्र योनिस्थानसे यह उत्पन्न हुआ है। ऊपरसे केवल चामसे . ढका हुआ है. किंतु भीतरसे दुर्गंधियुक्त, कुत्सित नव द्वारोंसे युक्त, तथा कृषियोंसे व्याकुर है। और विष्टा मूत्रके उत्पन्न होनेका स्थान है, · त्रिदोष-मान, पित्त, कफसे युक्त है, शिरानालसे बंधा हुआ है तथा ग्लानियुक्त है। इस तरह इस शरीरकी अशुचिताका चितवन करना चाहिये ॥ ९६ ॥ जिनेन्द्र भगवानने इन्द्रियों के साथ साथ कपायोंको आत्रका कारण बताया है। ये विषय ही जीवोंको इस लोकमें तथा परलोकमें दुःखोंके समुद्र में ढकेलनेवाले हैं। आत्मा इनके वशमें पड़कर उस चतुर्गतिरूर गुहाका आश्रय लेता है जिसमें कि मृत्युरूपी सर्प बैठा हुआ है। इस प्रकारसे विवेकियोंको आत्रके दोषोंका निरंतर चितवन करना चाहिये ॥ ९७ ॥ जिस प्रकार समुद्रमें पड़ा हुआ नहान छेद होनाने पर जलसे मरकर शीघ्र ही डूब जाता है उसी तरह आत्रोंके द्वारा यह पुरुष भी अनंत दु:खोंके स्थानमा जन्ममें. निमग्न हो जाता है। इसलिये तीनों करणों-मन, वचन, कायके द्वारा अ.नाका निरोध करना-संबर करना ही युक्त है । क्योंकि जो संबर युक्त है वह शीघ्र ही मुक्त होता है. इस प्रकार सत्पुरुषोंको उत्कृष्ट संवरका ध्यान करना चाहिये ॥ ९८ ॥ विशेषरूपसे इकट्ठा हुआ भी दोप: जिस तरह प्रयत्नके द्वारा जीर्ण-उपशांत-नष्ट हो जाता है.' उसी प्रकार रलायसें अलंकृत यह धीर आत्मा ईशर-महान् तपके : द्वारा बंधे हुए और इबटे हुए गाद कर्माको भी नष्ट कर देता है । जो कातर हैं वह इन-व.मौको नष्ट नहीं कर सकता. तथा तपके सिवाय दुसरे उपायो नष्ट हो भी नहीं सकते। इस प्रकार भव्योंको
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy