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________________ ८ . ... ...... .. .बारहवां सगै । . [१६९ :. महावत नामसे प्रसिद्ध है । पहला भेदं गृहस्थोंके लिये पालनीय है और दूसरा भेद . सर्वथा त्यागी मुनियों के द्वारा पालनीय है ..४७-४८॥ हे मद्र !: समस्त वस्तुओं के नाननेवाले जिनेन्द्र देव सदग्दर्शनको इन दोनों भेदोंका मूल बताते हैं । अर्थात् सम्यग्दर्शनके विनां वास्तव में धर्म नहीं हो सकता | सातो तत्वों में निश्चय करके जो एक अद्वितीय दृढ़ श्रद्धान करना इसको सम्पग्दर्शन समझ ॥ ४९ ॥ हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पांच 'पापोंके सर्वात्मना त्यागको यतियोंका व्रत-महाव्रत कहते हैं, और इन्ही पापोंकी स्थल निवृत्तिवो गृहाथोंका व्रत कहा है ॥ ५० ॥ अनादि सांसारिक विचित्र दुःखोके महान् दावानलको नष्ट करने लिये इसके सिवाय दूसरा कोई भी उपाय नहीं है । अत एव पुरुषको इस विषय में प्रयत्न करना चाहिये ॥ ६१ ॥ मिथ्यात्व (अतत्त्वश्रद्धान), योग (सन, चिन, कायवे द्वरा आत्माका सकंप होना), अविरति (संयम), प्रमाद (असावधानता) तथा अनेक प्रकारके कपाय-दीपसि यह आत्मा सदा आठ प्रकारके कर्माका बंध करता है। रहं, कम ही-संसारमें निवास करनेका हेतु है ।। ५२ ॥ यह कर्मवन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञाने, सम्र कनारित्र और तप इनके द्वारा मुलमेसे उखाड़ दिया जाता हैं । जो पुरुप इन पर स्थित रहता है उनको धारण करता है स्यंत उत्सुक हुई स्त्रीके समान मुक्ति उसके पास आकर प्राप्त होती है ॥ ५३ ॥ अपनेको और परको उपताप देनेवाले इन्द्रियों के विषयोंका सुख समझ कर ज्ञानमिथ्या ज्ञानसे मूह हुआजीव सेवन करता है। किंतु नो अपनी आत्माके स्वरूपको जाननेवाला है। वह अत्यंत पाप और दृष्टिविप ....
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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