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________________ . बारहवां सर्ग। [१६७ करता है ॥३४॥ जो इसके अनुकूल थे उनके लिये तो प्रीतिसे वह चंदन के लेप समान सुखका कारण हुआ। और जो शत्रु थे उनको 'प्रोपर्युक्त इपने दूर रहकर ही जिस तरह सूर्य अत्रकारको नष्ट कर देना है उसी तरह जल दिशा-ट कर दि॥ ३५॥ . . . . जिस तरह निर्मल कीर्ति प्रजामें अनुराग उत्तन्न करती है, . अच्छी तरह प्रयुक्त निति अभीष्ट अर्थको उत्पन्न करती है, अथवा बुद्धि पदार्थ-ज्ञ नको उत्पन्न करती है, इसी तरह उसकी इस प्रियाने हेमरथ नामके पुत्रको उत्पन्न किया ।। ३६ ॥ प्रिय अंगना• ओंके अत्युनत कुचोंके अग्रभागों-चुचुकों के द्वारा छुट गई है वक्ष:.. स्थळपर लगी. हुई चंदन-श्री जिसकी ऐमा यह राजा पृथ्वीपर पांचो इन्द्रियोंके लिये इष्ट संसारके सारभूनसुखों को पूर्वोक्त रीतिसे .' भोगता रहा ॥ ३७॥ • " . इसी तरह कुछ दिनों के बाद एक दिन विद्याधर राजाओंमें सिंहसमान यह राजा अपने हाथ से दिये हैं सुंदर भूपण जिप्तको ।' ऐसा, मत्त चकोरके समान नेत्रवाली अथवा मत्त और चकोरके समान नेत्रवाली कांताको लेकर सुदर्शन नामक बनमें रमण करने के . लिये गया ॥ ३८ ॥ इसी वनके एक मागमें बाल अशोक वृक्षक नीचे. खूत्र बड़ी पत्थरकी शिलापर मानों वालसूर्यकी शोभाको चुराने -- वाले रागरूपी मल्लको पटककर उसके डार बैठे हों, इस तरहसे बैठे “हुए अपने अंगोंसे कृश किंतु तोसे अकृश, प्रशमके स्थान, क्षमाके ' अद्वितीय पति, परिषहोंके वशमें न होनेवाले, इन्द्रियोंको वशमें करनेवाले, उत्कृष्ट चारित्ररूप लक्ष्मीके निवास करनेके कमल, मानों आगमका सारभूत. मूर्तिमान अर्थ ही है, स्वयं दयाका साधुवाद
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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