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________________ महावीर चरित्र 1 १६६ ] द्रकी की दोनों वेलायें (तट) एक दूसरेको छोड़कर क्षण भर भी नहीं रह सकतीं। इसी तरह अरला लावण्य विशेष लक्ष्मी (सौंदर्यकी .. विशेष लक्ष्मी या सौंदर्य और विशेष लक्ष्मी) को धारण करनेवाले में प्रसिद्ध वर वधू एक दूरको छोड़कर आधे निमेष तक भी नहीं ठहर सकते थे || २९ || वह कुमार नन्दन बनके भीतर ताण्डव नवीन पल्लवोंकी शय्या पर सुला कर कुपि । हुई कान्ताको प्रसन्न करता था। जब उसके नीचेका ओष्ठ कुछ कंपने लगना- अर्थात् 'जब उसके मुखपर प्रश्नवाकी झलक आजाती या दीखनाती तत्र उसको रमाता था ॥ ३० ॥ अ ह - भक्ति युक्त है आत्मा जिनकी ऐसा कनकध्वन प्रि के साथ वेगसे उत्पन्न हुई वायुके द्वारा अपनी. तरफ खींच लिया है मेनको जिसने ऐसे विमानके द्वारा जाकर मंदर - मेरुकी शिखरों पर जो जिनमंदिर हैं उनकी माला आदिन के द्वारा पूजा करता था ॥ ३१ ॥ इस तरह कुछ दिन बीत जानेपर एक दिन संसारके निवासस भयभीत और जीता है इन्द्रियों का व्यापार जिसने ऐमे राजा कनंकामने उस कनकध्वन कुमारको राज्य देकर सुमति मुनिके निकट दीक्षा ग्रहण करली || ३२ || दूसरोंके लिये अप्राप्य राज्य लक्ष्मीको पाकर भी उस धीर वनकध्वनने उद्धनता धारण न की । ऐमा ही . लोक में देखने में आता है कि जो महापुरूप हैं उनको बड़ी मारी.. भी विभूति विकृत नहीं कर सकती ॥ ३३ ॥ बड़ी हुई है श्री जिसकी ऐश यह राजा चंद्रमाकी किरण समान निर्मत्र अपने गुणोंके, द्वारा प्रजाओं - प्रजाजनों में सदा अविनश्वर या निर्दोष अनुरागं-प्रेमको उत्पन्न करता था । महापुरुषोंकी वृत्तिका रूप - स्वरूप अर्चित्य हुआ
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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