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________________ छहा सर्ग। AN - - स्पळपर बैठे हुए भ्रमर व्याकुल होकर उड़ने लगे । ३३ ।। कोपसे विवर्ण हुआ यह दिवाकर विद्याधर सूर्यके समान अपने बहुत बड़े प्रतापसे समस्त दिशाओंको पूर्ण करता हुआ, जगत्से नमस्कृत अअपादोंको (चरणोंको-सूर्यके पक्षमें किरणोंको) पद्माकरके ऊपर रखता हुआ शीघ्र ही इस बातका बोध कराने लगा मानों यह अभी जनताका क्षय कर डालेगा ॥ ३४ ॥ सभामें कामदेवके समान सुन्दर मालूम पड़नेवाले चित्रांगदने शत्रुओंके कुल-पर्वतोंको मथनेवाले अपने दोनों हाथोंसे जिनमें कि उनका-शत्रुओंका घात करतेर छोटीर गांठे-ठेके पड़ गई थीं, गलेमें पड़ी हुई हारलताको ऐसा कू र्णित कर डाला जिससे उसमेंका सून मी बाकी न बत्रा ॥ ३५ ॥ ईश्वर और वज्रदंष्ट्र दोनों शत्रुके साथ युद्ध करनेके लिये आकाशमें डोलने लगे, पर सभासदोंने उन्हें किसी तरह रक्खा-रोका । उन्नत जलमें धोई गई जिसपर अत्यंत तीक्ष्ण पानी चढ़ाया गया है ऐसी तलवारमेंसे निकलते हुए किरणांकुरों से उन दोनों के दक्षिण बाहुदण्ड भासुरित हो रहे थे ॥३६॥ बहुत दिनों मुझको यह अवसर प्राप्त हुआ था तो भी मुझको इसने नहीं स्वीकारा इसीलिये मानों वह रुष्ट हुआ यथार्थनामा अकंपन रानाका कोप दूरसे हुआ । ठीक ही है-जो चंचल बुद्धि होता है वह समामें कोप करता है नकि धीर ॥३७॥ जिसने जल्दीर निर्दय होकर अपने रमणीय और आस्कालित ओठोंको चना डाला ऐसे शनिश्चरके समान पराक्रमके धारण करनेवाले क्रुद्ध बलीने झणझणाट शब्द करनेवाले भूषणोंसे युक्त अपने दक्षिण हाथसे गंभीर शब्द करते हुए. पृथ्वीको निःसत्य निस्तेज़ कर दिया ॥ ३८ ॥.
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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