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________________ ८६ ] महावीर चरित्र । क्रोधक मारे लाल हुई आंखास मानों उसकी आरती ही कर रहा है इस तरहसे समाकी तरफ देखकर अभिमानशाली उद्धत धूमशिख समामें इस तरह वोला । बोलते समय मुखके खुलते ही जो उसमेंसे धुंआ निस्दा उससे मानों समस्त दिशायें धन्न हो गई । वह बोला- हे अश्वग्रीव ! आप वृथा क्यों के हैं ! आंज्ञा कीनिय । असत् पुरुषों का पराभव करनमें बुद्धि लगानी चाहिये न कि उपेक्षा करनी चाहिये। हे चक्रवर! क्या मैं वायें हाथसे सारी पृथ्वीको उठाकर समुद्र में पटक हूँ ॥१०॥ उस भूमिगोचरी मनुष्यने नो नमिकुलमें श्रेष्ठ विद्याधरकी अनुपम और लोकोत्तम पुत्रीको अपने गलेमें धारण किया है सो क्या वह उसके योग्य है। यह ऐसा ही हुआ है जैसे कोई कुत्ता उज्ज्वल रत्नमालाको गलेमें पहर ले। इस विषयमें कौन ऐमा होगा जो विधिको असह्य मनीपाको देखकर हंसेगा नहीं ॥४१॥ इन विद्याधरोंके स्वामियोंमेंसे चाहे जिसको आप हुकुम करें वही अकस्मात् जाकर नमिके कुलका एक निमिप मात्रमें प्रलय कर डालता है। बाक समान उन मनुष्योंकी तो बात ही क्या है ॥४२॥ यमराज समान आपके क्रुद्ध होनेपर एक क्षण भी कोई नहीं जी सस्ता, यह बात लोकमें प्रसिद्ध हो रही है। फिर भी इस बातको जानते हुए मी न मालूम क्यों उसने आपसे इस तरहका विरोध किया है ! अथवा ठीक ही है-जब विनाशकाल आजाता है तब बड़े बड़े विद्वानोंकी मी बुद्धि हवाखाने चली जाती है"॥४३|| इसी समय 'आत्मवंधुओंके साथ २ नागपाश वगैरहसे बांधकर वधू और पर दोनोंको अभी लाते हैं यह सोचकर वे विद्याधर ठे। परन्तु मंत्रीने किसी
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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