SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्यविचार ६५ है। किन्तु उल्लिखित तीनोंसे समाहित आत्मा जब स्व-स्वभावसे भिन्न और कुछ भी आचरण नहीं करता और स्वभावका त्याग नहीं करता, तब वह पारमार्थिक दृष्टिसे मोक्षमार्गी कहलाता है। जो पुरुष अनन्यमय आत्माको, आत्मा-द्वारा जानता और देखता है, निश्चय ही वह ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप बन जाता है। मुक्त जीव समस्त वस्तुओंको जानता और देखता है, इस कारण उसे अनन्त सुखका भी अनुभव होता है । अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख, एक ही वस्तु हैं, ऐसा भव्य जीव मानता है। अभव्य ऐसा नहीं मानता। साधुजन कहते हैं-दर्शन, ज्ञान और चारित्र मोक्षके मार्ग हैं, अतएव इनका सेवन करना चाहिए; परन्तु इन तीनोंसे तो बन्ध भी होता है और मोक्ष भी होता है। कतिपय सरागी ज्ञानियोंकी मान्यता है कि अर्हत् आदिकी भक्तिसे दुःखमोक्ष होता है, परन्तु इससे तो जीव परसमय-रत होता है। क्योंकि अर्हत, सिद्ध, चैत्य, शास्त्र, साधुसमूह और ज्ञान, इन सबकी भक्तिसे पुरुष पुण्यकर्मका बन्ध करता है, कर्मक्षय नहीं करता। जिसके हृदयमें परद्रव्यसम्बन्धी अणुमात्र भी राग विद्यमान है, वह अपने शुद्ध स्वरूपको नहीं जानता; फिर चाहे उसने सम्पूर्ण शास्त्रोंका पारायण ही क्यों न कर लिया हो। आत्मध्यान बिना चित्तके भ्रमणका अवरोध होना सम्भव नहीं है। और जिसके चित्तभ्रमणका अन्त नहीं हुआ, उसे शुभ-अशुभ कर्मका बन्ध रुक नहीं सकता। अतएव निवृत्ति (मोक्ष ) के अभिलाषीको निःसंग और निर्मल होकर स्वरूपसिद्ध आत्माका ध्यान करना चाहिए। तभी उसे निर्वाणकी प्राप्ति होगी। बाकी जैनसिद्धान्त या तीर्थकरमें श्रद्धावाले, श्रुतपर रुचि रखनेवाले तथा संयम तपसे युक्त मनुष्यके लिए भी निर्वाण दूर ही है। मोक्षकी कामना करनेवाला कहीं भी, किंचित् मात्र भी राग न करे । ऐसा करनेवाला भव्य भवसागर तर जाता है । ( पं० १५५-७३) १. भव्य-भविष्यमें मुक्ति पानेकी योग्यतावाला। २. अभव्य-भव्यसे विपरीत ।
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy