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________________ कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न संन्यास - यह सब जानकर, अगर तुझे दुःखसे छुटकारा पानेकी अभिलाषा हो तो सिद्धोंको, जिनेश्वरोंको और श्रमणोंको पुनः-पुनः प्रणाम करके श्रमणता स्वीकार कर । उसकी विधि इस प्रकार है : गुरुजनोंसे तथा पत्नी और पुत्रसे उनके इच्छानुसार छुटकारा लेकर, बन्धुवर्गकी आज्ञा प्राप्त करके मुमुक्षु पुरुष आचार्यके समीप जाये । आचार्य ज्ञान, दर्शन, चारित्र तप और वीर्य - इन पांच आचारोंसे सम्पन्न हों, गणके अधिपति हों, गुणाढ्य हों, विशिष्ट कुल, रूप और वय ( उम्र ) से युक्त हों और अन्य श्रमणोंको इष्ट हों। उनके समीप पहुँचकर, उन्हें नमस्कार करके 'मुझे स्वीकार कीजिए' ऐसा कहना चाहिए। तत्पश्चात् जब आचार्य अनुग्रह करें तो जैन साधुका वेष इस प्रकार धारण करना चाहिए : सर्वप्रथम 'मैं किसीका नहीं हूँ, दूसरा कोई मेरा नहीं है, इस संसारमें मेरा कोई नहीं है' ऐसा निश्चय करके, जितेन्द्रिय होकर जन्मजातदिगम्बर-रूप धारण करना चाहिए (अर्थात् वस्त्र आदिका सर्वथा त्याग करना चाहिए ) । केश और दाढ़ी वगैरह उखाड़ फेंकना चाहिए । परिग्रहरहित शुद्ध बन जाना चाहिए। हिंसादिसे रहित होना, शरीरका संस्कार त्याग देना, आसक्तिपूर्वक प्रवृत्ति न करना तथा शुभाशुभ भावोंका त्याग करके शुद्धभावसे युक्त तथा निर्विकल्प समाधिरूप योगसे युक्त बनना चाहिए। परपदार्थकी अपेक्षा न रखनेवाला जैन साधुका वेष पुनर्भवका नाश करनेवाला है। इस प्रकार परमगुरुके सन्निकट जैन साधुकी दीक्षा लेकर, उन्हें नमस्कार करके, उनके श्रीमुखमे व्रतसहित आचार श्रवण करके, उसमें प्रयत्नशील रहनेवाला सच्चा श्रमण कहलाता है। श्रमण होते हुए भी जो मुनि जिनप्ररूपित तत्त्वोंपर श्रद्धा नहीं रखता वह श्रमण नहीं है और वह आत्माका शुद्ध स्वरूप भी नहीं पा सकता। जिसकी मोहदृष्टि नष्ट हो
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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