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________________ कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न कारणोंके अभावसे ज्ञानी पापजनक प्रवृत्ति नहीं करता, अतएव उसका कर्मबन्ध रुक जाता है। कर्मके अभावसे जीव सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता है और इन्द्रियरहित, अव्याबाध और अनन्त सुख पाता है । श्रद्धा और ज्ञानसे परिपूर्ण तथा अन्य' द्रव्योंके सम्बन्धसे रहित ध्यान शुद्ध स्वभावी साधुके कर्मक्षयका कारण होता है । ( पं० १४४-५२) जो संयमयुक्त है और जो सब कर्मोका क्षय करनेमें प्रवृत्त रहता है, वह वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुकर्मका क्षय होते ही संसारको छोड़ देता है । इसीका नाम मोक्ष है । (पं० १५३ ) __चारित्र - चैतन्य स्वभावसे अभिन्न अप्रतिहत ज्ञान और अप्रतिहत दर्शन जीवका स्वभाव है। जीवका ( रागादिके अभावसे ) निश्चल-स्थिरअस्तित्व ही निर्मल चारित्र है। जो जीव अपने वास्तविक स्वभावमें निश्चल है, वह स्वसमयी है। किन्तु ( अनादिकालीन मोहके कारण ) जो जीव अनेक ( मतिज्ञान आदि ) गुणों और ( नर-नारक आदि) पर्यायोंसे युक्त बनता है, वह परसमयी है । जो जीव स्व-स्वभाव ही का आचरण करता है, वह कर्मबन्धसे मुक्त होता है। जो जीव रागपूर्वक परद्रव्यमें शुभ या अशुभ भाव धारण करता है, वह स्वचरित्रसे भ्रष्ट होकर परचारित्री बनता है। जो सर्वसंगविनिर्मुक्त और अनन्यमनस्क जीव अपना शुद्ध स्वभाव निश्चयपूर्वक जानता और देखता है, वह स्व-चारित्रका आचरण करता है। जिस जीवकी परद्रव्योंमें उपादेय बुद्धि मिट गयो है तथा जो दर्शन और ज्ञानसे अभिन्न आत्माका ही आचरण करता है, वह स्व-चरित्रका आचरण करता है। धर्मद्रव्य आदि पदार्थों में श्रद्धा, . सम्यक्त्व या दर्शन, अंगों और पूर्वोमें जिसका निरूपण किया गया है वह ज्ञान, और तपश्चरण चारित्र है; यह व्यावहारिक रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग १.समय अर्थात् सिद्धान्त-शास्त्र । स्वसमयी अर्थात् अपने धर्मका अनुसरण करनेवाला जैन । जो समभाव-स्वभाव प्राप्त करता है वही जैन है, यहाँ ऐसा आशय समझना चाहिए।
SR No.010400
Book TitleKundakundacharya ke Tin Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel, Shobhachad Bharilla
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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