SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२१) दूसरे वर्ग के अध्यवसाय-अनन्त-गुण-विशुद्ध होते हैं। इस प्रकार नववे गुणस्थान के अन्तिमसमय तक पूर्व २ समय के अध्यवसाय-स्थान से उत्तर२ समय के अध्यवसाय स्थान को अनन्त-गुण-विशुद्ध समझना चाहिये । पाठवे गुण स्थानक से नववे गुणस्थानक में यही विशेषता है.कि आठवें गुणस्थानक में तो समान समयवर्ती त्रैकालिक अनन्त-जीवों के अध्यवसाय,शुद्धिः के तरतम-भाव से असंख्यात वर्गों में विभाजित किये जा सकते हैं, परन्तु नववे गुणस्थान में समसमयवती त्रैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसायों का समान शुद्धि के कारण एक ही धर्ग हो सकता है। पूर्व पूर्वगुणस्थानको अपेक्षा,उत्तर उत्तर.गुणस्थान में कषाय के अंश “बहुत कम होते जाते हैं,और कषाय की(संक्लेशकी जितनी ही कमी हुई, उतनी ही विशुद्धि जीव के परिणामों की बढ़ जाती है। पाठवें गुणस्थान से नवव.गुणस्थान में विशुद्धि इतनी अधिक हो • जाती हैं कि उसके अध्यवसायों की भिन्नतायें आठवें गुण, स्थान के अध्यवसायों की भिन्नताओं से बहुत कम हो जांती है। . दसवें गुणस्थान की अपेक्षा नववे गुणस्थान में बादर (स्थूल.) सम्पराय (कषाय ) उदय में आता है । तथा नववें • गुणस्थान के सम-समय-वर्ती जीवों के परिणामों में निवृत्ति (भिन्नता) नहीं होती। इसी लिये इस गुणस्थान का अनि वृत्तिवादरसम्पराय" ऐसा सार्थक नाम शास्त्र में प्रसिद्ध है। ... नववे गुणस्थान को प्राप्त करनेवाले जीव, दो प्रकार के ___ होते हैं:-एक उपशमक और दूसरे पकजोचारित्र मोहनीय. कर्म का उपशमन करते हैं, वे उपशमक और जो
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy