SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२०) जैसे राज्य को पाने की योग्यतामात्र से भी राजकुमार राजा कहाता है, वैसे ही आठवे गुणस्थान में वर्तमान जीव, चारित्र-मोहनीय कर्म के उपशमन या क्षपण के योग्य होने से उपशमक या क्षपक कहलाते हैं। क्यों कि चारित्र-मोहनीय कर्म के उपशमन या क्षपण का प्रारम्भ नववे गुणस्थानक में ही होता है, श्राठवें गुणस्थान में तो उसके उपशमन या क्षपण के प्रारम्म की योग्यतामात्र होती है ॥ ८॥ अनिवृत्तिवादर संपराय गुणस्थान इस गुणस्थान की स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है। एक अन्तर्मुहूर्त के जितने समय हाते हैं उतने ही अध्यवसाय-स्थान, इस नवयं गुणस्थानक में माने जाते हैं। क्यों कि नववे गुणस्थानक में जो जीव सम-समयवर्ती होते हैं उन सब के अध्यवसाय एक से-अथीत् तुल्य-शुद्धिवाले होते हैं। जैसे प्रथम-समयवर्ती बैंकालिक अनन्तजीवों के भी अध्यवसाय समान ही होते हैं इस प्रकार दूसरे समय से लेकर नववे गुणस्थान के अन्तिम समय तक तुल्य समय में वर्तमान त्रैकालिक जीवों के अध्यवसाय भी तुल्य ही होते हैं। और तुल्य अध्यवसायों को एक ही अध्यवसाय-स्थान मान लिया जाता है । इस बात को समझने की सरल रीति यह भी है कि नववे गुणस्थान के अध्यवसायों के उतने ही वर्ग हो सकते हैं जितने कि उस गुणस्थान के समय हैं। एक एक वर्ग में चाहे त्रैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसायों की अनन्त व्यक्तियाँ शामिल हों, परन्तु . प्रतिवर्ग अध्यवसाय-स्थान. एक ही माना जाता है। क्यों कि एक वर्ग के सभी अध्यवसाय, शुद्धि में बराबर ही होते हैं, परन्तु प्रथम समयके अध्यवसाय-स्थानसे-अर्थात् प्रथम-वर्गीय अध्यवसायों से-दूसरे समय के अध्यवसाय-स्थान-अर्थात्
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy