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________________ (१०) वन्धी नाम के कपाय संस्कारों की प्रबलता के कारण आत्मा अपने परमात्म-भाव को देख नहीं सकता। उस समय वह यहिदृष्टि होता है । दर्शनमोहं आदि संस्कारों के वेग के कारण उस समय उसकी दृष्टि, इतनी अस्थिर व चंचल बन जाती है कि जिससे वह अपने में ही वर्तमान परमात्म-स्वरूप या ईश्वरत्व को देख नहीं सकता । ईश्वरत्व भीतर ही है, परन्तु है वह अत्यन्त सूक्ष्म; इसलिये स्थिर व निर्मल दृष्टि के द्वारा ही उसका दर्शन किया जा सकता है । चौथी भूमिका या चौथे गुणस्थान को परमात्म-भाव के या ईश्वरत्व के दर्शन का द्वार कहना चाहिये । और उतनी हद तक पहुँच हुये आत्मा को अन्तरात्मा कहना चाहिये । इसके विपरीत, पहली तीन भूमिकाओं में वर्तने के समय, आत्मा को बहिरात्मा कहना चाहिये। क्योंकि वह उस समय बाहरी वस्तुओं में ही पात्मत्व की भ्रान्ति से इधर उधर दौड लगाया करता है। चौथी भूमिका में दर्शनमोह तथा अनन्तानुवन्धी संस्कारों का वेग तो नहीं रहता, पर चारित्र-शक्ति के प्रावरण-भूत संस्कारों का वेग अवश्य रहता है। उनमें से अप्रत्याख्यानां. 'वरण संस्कार का वेग चौथी भूमिका से आगे नहीं होत ' इससे पाँचवीं भूमिका में चारित्र-शक्ति का प्राथमिक विकास होता है। जिससे उस समय प्रात्मा, इन्द्रिय जय, यम-नियम आदि को थोड़े बहुत रूपमें करता है-थोड़े बहुत नियम पालने के लिये सहिष्णु हो जाता है। प्रत्याख्यानावरण नामक संस्कार-जिनका वेग पाँचवीं भूमिका से आगे नहीं है-उन का प्रभाव घटते ही चारित्र-शक्ति का विकास और भी बढ़ता है, जिससे आत्मा बाहरी भोगों से हटकर पूरा संन्यासी बन जाता है । यह हुई विकास की छट्ठी भूमिका। इस भूमिका में भी चारित्र-शक्ति के विपक्षी 'संज्वलन' नाम के संस्कार .कभी कभी ऊधम मचाते हैं, जिससे चारित्र-शक्ति का
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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