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________________ पन्धक (रोकनेवाले) संस्कारों की न्यूनता-अधिकता या मन्दता-तीव्रता पर अवलम्बित है । प्रथम तीन गुणस्थानों में दर्शन-शक्ति व चारित्र-शक्ति का विकास इसलिये नहीं होता कि उनमें उन शक्तियों के प्रतिबन्धक संस्कारों की अधिकता या तीव्रता है। चतुर्थ श्रादि गुणस्थानों में वे ही प्रतिबन्धक संस्कार कम (मन्द) हो जाते हैं। इसले उन गुणस्थानों में शक्तियों का विकास प्रारम्भ हो जाता है।। इन प्रतिवन्धक (कपाय ! संस्कारों के स्थूल दृष्टिले ४ विभाग किये हैं। ये विभाग उन कापायिक संस्कारों की विपाक-शक्ति के तरतम-भाव पर आश्रित है । उनमें से पहला विभाग-जो दर्शन-शक्ति का प्रतिबन्धक है-उते दर्शनमोह तथा अनन्तानुवन्धी कहते हैं । शेष तीन विभाग चारित्र-शक्ति के प्रतिबन्धक हैं। उनको यथाक्रम अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानाचरण और संचलन कहते हैं। प्रधम विभाग की तीव्रता, न्यूनाधिक प्रमाण में तीन गुणस्थानों ( भूमिकाओं तक रहती है । इस से पहले तीन गुणस्थानों में दर्शन-शक्ति के आविर्भाव का सम्भव नहीं होता । कपाय के उक्त प्रथम विभाग की प्रत्यता, मन्दता या प्रभाव होते ही दर्शन-शक्ति व्यक्त होती है । इसी सनय आत्मा की दृष्टि खुल जाती है । दृष्टि के इस उन्मेष को विवेकख्याति, भेदज्ञान, प्रकृति-पुरुषान्यता-साक्षात्कार और ब्रह्मज्ञान भी कहते है। इसी शुद्ध दृष्टि से प्रात्मा जङ-चेतन का भेद. शसंदिग्ध'रूप से जान लेता है ! यह उसके विकास काम को चौधों भूमिका है । इसी भूमिका से वह अन्तराष्ट्र बन जाता है. और हारम-मंदिर में वर्तमान तात्त्विक परमात्म-स्वरूप को देखता है। पहले की तीन भूमिकाओं में दर्शनमोह और अनन्तानु.
SR No.010398
Book TitleKarmastava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1918
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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