SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 164 दानं दत्वासुरतरिवात्युच्च धामारुरुक्षुः पुण्यं पृथ्वीधरवरमथो रैवतं स्वीचकारः ।।" अर्थात तीनों लोको के उपदेशक तथा अत्यन्त बुद्धिमान् किसी ने चिदानन्द को पाने की इच्छा से सभी पाप व्यापारों की मूल कारण कान्ता (राजीमती) को त्याग दिया। तदन्तर सुरतरू के सदृश (सम्मपति) का वितरण करके अच्युच्च पद पर आरोहण के इच्छुक बनकर पर्वतश्रेष्ठ पवित्र रैवतक को स्वीकार किया। यहाँ पर श्री नेमि न कहकर उन्हें 'त्रिभुवन' गुरु शब्द से सम्बोधित किया गया है। व्यंगार्थ “त्रिभुवनगुरु' शब्द से व्यञ्जना व्यापार द्वारा श्री नेमि अर्थ दिग्दर्शित होता है। प्रथम सर्ग के द्वितीय श्लोक में भी माधुर्य गुण की अभिव्यञ्जना की गई है - दीक्षां तस्मिन्निव नवगुणां सैषणां चापयष्टि प्रद्युम्नाधामभीरिपुचमूमात्तवत्येकवीरे। तद्भक्तेतिच्छलितजगता क्लिश्यमाना निकामं कामेनाशु प्रियविरहिता भोजकन्या मुमूर्छ।। इसका सामान्य अर्थः- उन अद्वितीय वीर श्री नेमि के द्वारा अपनी उस शत्रुसेना (काम जिसमें प्रमुख है) जिसमें कामदेव आदि बलिष्ठ वीर है, की ओर नवीन प्रत्यञ्चा तथा बाण से युक्त धनुष के ग्रहण करने के समान शीलादि नव गुणों एवं अहारादि शुद्धि से समन्वित दीक्षा ग्रहण करने पर समस्त संसार को छलने वाली काम रूपी (श्रीनेमि के) प्रमुख शत्रु यह जैनमेघदूतम् १/१
SR No.010397
Book TitleJain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Dwivedi
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy